📉 घर में हेकड़ी, विदेश में बकरी: कानपुर, लखनऊ और नोएडा की सामाजिक विसंगतियाँ
✍️ लेखक: अक्षत अग्रवाल
📅 जुलाई 2025
"यहाँ राज करते हैं क्षत्रिय-ब्राह्मण, लेकिन विदेशों में जॉब, स्टार्टअप और रिसर्च करते हैं वैश्य।
घर में हेकड़ी है, विदेश में बकरी बनकर जीना मजबूरी बन चुकी है।"
🔎 भूमिका
उत्तर भारत के आर्थिक रूप से सक्षम लेकिन सामाजिक रूप से अधीनस्थ समुदाय—बनिया या वैश्य—आज एक विचित्र दोराहे पर खड़ा है।
कानपुर, लखनऊ, और नोएडा जैसे शहरों में ये समुदाय आर्थिक ताकत तो रखता है, लेकिन स्थानीय समाज में निर्णय लेने की शक्ति या सांस्कृतिक नेतृत्व से आज भी वंचित है।
🏙️ शहरवार स्थिति:
📍 कानपुर:
- वैश्य समुदाय के पास व्यापार और संपत्ति है, लेकिन स्थानीय राजनीति, ठेकेदारी, शिक्षा संस्थानों और मंदिर समितियों पर राज करते हैं ठाकुर और ब्राह्मण।
- सामाजिक कार्यक्रमों में भी वैश्य परिवार “दूसरे दर्जे” की हैसियत में भाग लेते हैं—धन होता है, लेकिन "वर्चस्व" नहीं।
📊 आंकड़ा (2023-24):
- IIT Kanpur में 34% OBC और SC/ST छात्र हैं, जबकि General वैश्य समुदाय की संख्या <6% रही।
- कानपुर से हर साल ~2,500 वैश्य युवा यूएस, कनाडा, यूके, ऑस्ट्रेलिया में पढ़ाई और नौकरी के लिए निकलते हैं।
📍 लखनऊ:
- सरकार और प्रशासन में ब्राह्मणों का ऐतिहासिक वर्चस्व बना हुआ है।
- वैश्य समुदाय ने रियल एस्टेट, मेडिकल और स्कूलों में निवेश किया, लेकिन IAS/PCS, नगर निगम या पुलिस में प्रतिनिधित्व नगण्य।
📊 आंकड़ा:
- लखनऊ यूनिवर्सिटी में 2022 में MBA और B.Com में कुल 3,200 छात्रों में से ~1,000 वैश्य छात्र थे, जिनमें से 42% ने विदेश जाने की योजना जताई।
- हर साल ~1,100 वैश्य छात्र IELTS और GRE जैसी परीक्षाओं में बैठते हैं।
📍 नोएडा:
- आधुनिक शहर होते हुए भी यहां की जड़ें गुर्जर, जाट, ठाकुर और त्यागी समुदाय में गहराई तक बसी हैं।
- वैश्य समुदाय बड़ी संख्या में व्यापारी, चार्टर्ड अकाउंटेंट, IT प्रोफेशनल और डॉक्टर हैं, लेकिन भूमि अधिग्रहण, पंचायतों और बिल्डर लॉबी से दूर रखा जाता है।
📊 आंकड़ा:
- नोएडा से 2023 में 4,800 से अधिक छात्र विदेशों के लिए रवाना हुए, जिनमें ~1,300 छात्र वैश्य समुदाय से थे।
- इनमें से 65% छात्र permanent residency (PR) की ओर अग्रसर हैं — यानी वापस लौटने की इच्छा कमजोर हो चुकी है।
🧠 सामाजिक विरोधाभास: क्यों जाते हैं वैश्य युवा विदेश?
🔹 घर में हीन भावना:
जब समाज में कोई निर्णय लेने की शक्ति न हो, और खुद के धन को भी "सेवक मानसिकता" में देखा जाए, तो पढ़े-लिखे युवा घर छोड़ना ही बेहतर समझते हैं।
🔹 समाजिक असुरक्षा और राजनीतिक अस्पृश्यता:
राजनीति, जमीन, और बाहुबल—तीनों क्षेत्रों पर क्षत्रिय और ब्राह्मण वर्चस्व बना हुआ है। वैश्य समुदाय वहाँ ना घर का, ना घाट का महसूस करता है।
🔹 Global exposure & meritocracy:
विदेशों में जाति नहीं पूछी जाती। वहां ज्ञान, हुनर और परिश्रम की कद्र होती है। इसलिए युवाओं का झुकाव उसी ओर है।
🔥 निष्कर्ष: क्या ये पलायन या प्रतिरोध है?
"जिन्हें यहां सुना नहीं जाता, वो वहां रिसर्च पेपर्स छापते हैं।
जिन्हें यहां पंचायत में घुसने नहीं दिया जाता, वो वहां स्टार्टअप चलाते हैं।"
आज का वैश्य युवा स्वीकार नहीं कर रहा, बल्कि निराश होकर पलायन कर रहा है।
ये पलायन केवल भौगोलिक नहीं है, ये सांस्कृतिक और भावनात्मक अस्वीकृति का संकेत है।
📣 अंतिम शब्द: मेरी पीढ़ी के लिए चेतावनी
- अगर कुलीन जातियाँ (ब्राह्मण-क्षत्रिय) सोच रही हैं कि सामाजिक ढांचे हमेशा उनके अनुकूल बने रहेंगे, तो वो भूल में हैं।
- अगर वैश्य समुदाय सोचता है कि “हमें क्या, हम तो बिज़नेस करते रहेंगे”, तो ये भी अवास्तविक आशावाद है।
👨👩👧👦 आने वाली पीढ़ी को केवल धन नहीं, आत्मसम्मान और सामाजिक भागीदारी भी चाहिए।
नहीं तो भारत में हेकड़ी और विदेश में बकरी बने रहना नियति बन जाएगा।
✍️ सुझाव:
इस विषय पर आपके विचार क्या हैं? क्या आपके परिवार के युवा भी विदेश जा रहे हैं?
अपने अनुभव नीचे कमेंट करें। यह चर्चा अब व्यक्तिगत नहीं, सामुदायिक चेतना का हिस्सा बननी चाहिए।
"घर में हेकड़ी, विदेश में बकरी"
— क्या यही बनिया समाज की नियति रह जाएगी?
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