क्या से क्या हो गया?
कभी जाहिल शूद्र, कभी स्वार्थी वैश्य, तो कभी पाखंडी भक्त पंडित।
इंसान बनो, कर लो भलाई का कोई काम।
"चातुर वर्णं मया सृष्टि" — यह श्रीकृष्ण द्वारा गीता में कही गई पंक्ति है। पर आज यह समझने की ज़रूरत है कि ये 'वर्ण' जन्म या जाति नहीं, बल्कि मन की वृत्तियाँ हैं। आइए समझते हैं कि आज के समाज में ये चार वृत्तियाँ कैसे दिखती हैं:
1. स्वार्थी वैश्य – लालच में डूबा उपभोक्तावादी मन
आज का आम मध्यमवर्गीय व्यक्ति हो या कॉर्पोरेट पूंजीपति – एक ही धुन है: “मुझे क्या मिलेगा?”
ये वर्ग दिखने में आधुनिक, पढ़ा-लिखा, सफल और स्मार्ट लगता है, लेकिन अंदर से पूरी तरह इच्छाओं के जाल में फंसा हुआ है।
झूठ, प्रतिस्पर्धा, ब्रांड्स और स्टेटस की दुनिया में ये खुद को ‘काबिल’ मानता है, जबकि यह सिर्फ एक शोषण-चक्र का हिस्सा बन जाता है।
यह स्वार्थ प्रधान कर्म है — जिसे गीता में ‘रजोगुणी विकार’ कहा गया है।
2. ढोंगी ब्राह्मण – आध्यात्मिक अहंकार में डूबा पाखंडी मन
ये वर्ग पूजा-पाठ, धर्म, मंत्र-जाप, गुरु, साधना आदि का नकली प्रदर्शन करता है।
असल में, यह “मैं ज्ञानी हूँ” के अहंकार से ग्रसित होता है।
तंत्र, योग, ध्यान, प्रवचन – इन सबका उपयोग अपने झूठे आत्म-विशेषत्व को साबित करने में होता है।
ये कर्म भी विकर्म है — आध्यात्मिक अहंकार का रूप, जो मोक्ष की नहीं, बल्कि पहचान और सत्ता की ओर ले जाता है।
3. आलसी जाहिल शूद्र – कर्म से पलायन करने वाला मन
इनके लिए कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं — बल्कि कोई काम करना ही मुश्किल है।
न शिक्षा, न सेवा, न विवेक — बस समय की बर्बादी, भ्रम, और “भगवान देख लेंगे” वाली सोच।
यही है अकर्म – जिसे गीता में निष्क्रियता या 'तमोगुण' कहा गया है।
यह न तो भक्ति है, न कर्म — बल्कि अज्ञान और आलस्य का जाल है।
4. सत्याग्रही संत-महात्मा – विवेक से प्रेरित निःस्वार्थ कर्म
यह वर्ग धर्म, भक्ति या पैसा दिखाने में नहीं उलझा।
न वह पूजा-पाठ के नाम पर ढोंग करता है, न मोक्ष के नाम पर भागता है।
यह वही है जो मूल्य आधारित कर्म करता है — समाज, सत्य, न्याय और सेवा के लिए।
यही है निष्काम कर्म — गीता का सच्चा संदेश।
यह कोई धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि अंतरात्मा की पुकार है।
🌱 निष्कर्ष:
“वर्ण व्यवस्था जाति नहीं, मन की वृत्ति है।
धर्म कोई कर्मकांड नहीं, बल्कि विवेक और सेवा का मार्ग है।”
आज ज़रूरत है उस चतुर्वर्णात्मक मानसिकता को पहचानने की —
कि हम क्या बन चुके हैं, और क्या बन सकते हैं।
👉 क्या हम स्वार्थी वैश्य हैं?
👉 क्या हम ढोंगी पंडित हैं?
👉 क्या हम आलसी जाहिल हैं?
या फिर
👉 हम सत्यनिष्ठ, सेवा-भावी इंसान बनने को तैयार हैं?
इंसान बनो, कर लो भलाई का कोई काम।
कर्म ही धर्म है – जब वह निःस्वार्थ, विवेकपूर्ण और लोकमंगल के लिए हो।
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