क्या मेरा भूत भी सच? — अस्तित्व की वह यात्रा जो किसी को 'सत्य' तक ले जाती है, और किसी को 'सत्य' से बहुत दूर
"न जाने मेरे नाम के कितने दीवाने, सबके अपने अपने हम।
हे प्रभु, जब मेरा ये हाल है, तो तेरा क्या होगा!!"
🔍 प्रस्तावना: खोज का प्रारंभ — भूत से भागना या उसे समझना?
हर महान कहे जाने वाले जीवन की शुरुआत एक 'भूल-भुलैया' से होती है।
कोई गली में चाय बेचता है, कोई करघा चलाता है,
कोई महलों में रहकर भी भीतर खाली होता है।
और फिर — शुरू होती है "खोज"
सत्य की, पहचान की, अर्थ की।
पर क्या हर खोज सत्य तक पहुँचती है?
या कभी-कभी भूत का भ्रम, हमें 'अवतार' समझने की गलतफहमी दे देता है?
☕ चायवाला: संघर्ष से संकल्प तक, या विपणन से विभ्रम तक?
जब एक व्यक्ति रेलवे स्टेशन पर चाय बेच रहा था —
वो अपने अस्तित्व से जूझ रहा था।
गरीबी, संघर्ष, तिरस्कार — सब उसका भूत थे।
पर क्या उसका वर्तमान सच था?
या फिर एक दिन, वो भूत
इतना रोमांचक बन गया
कि लोग उसे अवतारी कथा की तरह सुनाने लगे?
हर संघर्ष एक कथा है,
पर हर कथा मोक्ष नहीं होती।
जब ‘सत्य’ के नाम पर
सत्य का बाज़ारीकरण होता है,
तो खोज रास्ता नहीं बनती —
चक्रव्यूह बन जाती है।
🧓 स्वयंसेवक: सेवा या स्वार्थ का साधन?
सेवा जब प्रचार बन जाए,
तो क्या वो सेवा रह जाती है?
कभी जो स्वयं को 'राष्ट्र का सेवक' कहता है,
वही धीरे-धीरे राष्ट्र का मालिक बन बैठता है।
कभी भाषण में विनम्रता,
फिर मंच पर विजय मुद्रा।
और तब — सत्य से जुड़ने की बजाय
सत्य पर नियंत्रण की लालसा जन्म लेती है।
🧘 संतों की तुलना में: मीरा, सूर, कबीर — जिनकी खोज थी निरहंकार
संत बनने से पहले,
मीरा को रानी कहने वालों ने विष का प्याला भेजा।
कबीर को जात से बहिष्कृत किया गया।
सूरदास अंधे और भूखे थे — न कोई मीडिया, न कोई ट्रोल आर्मी।
उनकी यात्रा भीतर की थी —
जहां हर मोड़ पर अहं को काटा गया,
न कि चढ़ाया गया।
उनकी खोज ने उन्हें ‘सत्य’ से जोड़ा,
क्योंकि उन्होंने अपने नाम के दीवानों को
स्वयं से दूर रखा।
🌀 जब कोई 'अवतार' कहलाने लगे...
जब कोई स्वयं को भूतपूर्व चायवाला, वर्तमान अवतार, और भविष्य का मसीहा मानने लगे,
तो उसे न खुद की पहचान बचती है,
न सत्य से उसका कोई संबंध।
तब ‘सत्य’ एक इवेंट मैनेजमेंट बन जाता है,
और भक्त — केवल भीड़।प्रश्न पूछने वाला — देशद्रोही।
और जो अंधश्रद्धा करे — वही 'संस्कृति रक्षक'।
🧩 तो क्या मेरी यात्रा भी किसी भ्रम में है?
"क्या मेरा भूत भी सच?"
या मैं भी बस किसी कथा का हिस्सा हूं,
जिसे कोई अपने अनुसार गढ़ रहा है?
यदि मेरा सत्य इतना विकृत हो सकता है,
तो हे प्रभु — तेरा क्या होगा,
जिसके करोड़ों रूप बना लिए गए हैं?
🌱 निष्कर्ष: खोज जरूरी है, पर उसका मार्ग और मंतव्य और भी जरूरी है
- मीरा ने कृष्ण को खोजा — खुद को खोकर।
- कबीर ने सत्य को खोजा — समाज से लड़कर।
- सूरदास ने दृष्टि को पाया — अंधे होकर।
पर जो लोग केवल "प्रोजेक्शन" बनाते हैं —
वो सत्य तक नहीं पहुंचते।
वो सत्य को कंट्रोल करते हैं।
🛑 अंतिम चेतावनी:
भक्ति और प्रचार के बीच केवल एक बाल की दूरी है —
जो संत को साधक बनाए रखती है,
और नेता को नायक से भगवान बना देती है।
📿 यदि आपको यह लेख सार्थक लगा हो, तो इसे उन लोगों से साझा करें, जो अभी भी "सत्य की खोज" में हैं — और संभव है, भ्रम के जंगल में भटक रहे हों।
क्योंकि हर खोज का अंत मोक्ष नहीं होता, कुछ भ्रम में ही समाधि मान लेते हैं।
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