Sunday, July 20, 2025

जीवन की कला: श्रीमद्भगवद्गीता, रामायण और श्रीमद्भागवत के आलोक में एक आत्मचिंतनात्मक निबंध

 

🕉️ जीवन की कला: श्रीमद्भगवद्गीता, रामायण और श्रीमद्भागवत के आलोक में एक आत्मचिंतनात्मक निबंध 🕊️


**"असमान कितने सितारे हैं तेरी महफ़िल में,

धरती पर तो कम ही होते जा रहे हैं..."**

यह पंक्ति एक करुण पुकार है — उन दिव्य आत्माओं के लिए जो कभी इस धरती पर आशा, करुणा, संगीत और आत्मशांति का प्रकाश थीं। आज के युग में जबकि भौतिकता और अहंकार की चकाचौंध है, वो निर्मल सितारे – संत, योगी, संगीतज्ञ, त्यागी, विचारक – दुर्लभ होते जा रहे हैं।

क्या हुआ उन ऋषियों का, जिनका चित्त ब्रह्म में लीन था?
क्या हम अब भी उनके पदचिन्हों पर चल सकते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर श्रीमद्भगवद्गीता, रामायण, और भागवत पुराण की अंतरात्मा में है।


1. श्रीमद्भगवद्गीता: बुद्धि का शुद्धिकरण और कर्म का संगीत

"बुद्धियोगेन तु मां पार्थ, योगं युञ्जन्मदाश्रयः।"
(गीता 10.10)

श्रीकृष्ण अर्जुन को बुद्धियोग की शिक्षा देते हैं — वह पथ जिसमें कर्म को संन्यास नहीं, साधना माना गया है।

👉 इस संदर्भ में जब आत्मा कहती है:

"प्रभु, बुद्धि का शुद्धिकरण आंदोलन करके उबाल कर दूध तैयार किया।
अभी बोलता है इसमें संगीत भावना की मिश्री घोल। और मैं ठहरा संन्यासी !!"

यह कर्मयोग और भावनाभक्ति का सम्मिलन है।
हमारी बुद्धि जब अहंकार, कामना, द्वेष से उबलकर मुक्त होती है — तब उसमें प्रेम और संगीत का भाव घोला जाता है।
संन्यासी होना किसी गुफा में बैठना नहीं है —
बल्कि भीतर के राग को शुद्ध करके, उसे जगत् के कल्याण में लीन करना है।


2. रामायण: अज्ञात पथिक का आत्मा को छू जाना

"बैठा चित्त के कोने में, दिल की वीणा लिए।
आकर छेड़ दिए दिल के तार किसी, अनजान मुसाफिर ने।"

यह दृश्य श्रीराम की छवि प्रस्तुत करता है —
जिनकी दृष्टि मात्र से अहल्या पुनर्जीवित हुई,
जिनके चरणों से निषाद, शबरी और विभीषण धन्य हुए।

रामायण हमें सिखाती है कि ईश्वर अज्ञात रूप में आता है,
मन के गहरे कोनों में बैठकर हमारी "दिल की वीणा" को छेड़ देता है।

👉 संकेत यह है:
आप साधना करते रहें,
कभी कोई 'अनजान मुसाफिर' — वह दिव्यता — आकर आपकी आत्मा को स्पर्श कर देगा।


3. श्रीमद्भागवत: संतों के सान्निध्य में आत्मा का विलय

"संत महात्माओं के पहलू में सिर रखकर रो लिए,
दास्तानें ग़म सुना के रो दिए।"

भागवत पुराण कहता है:

"सत्संगति किम् न करोति पुंसाम्"
(सज्जनों की संगति से आत्मा का कल्याण अवश्यम्भावी है)

जब चित्त विक्षिप्त हो, जब बुद्धि माया से भ्रमित हो,
तब संत का सान्निध्य ही औषधि है।

👉 इस युग में यह जरूरी नहीं कि वो संत बाहर हो —
आपकी अंतरात्मा में भी वह "दिव्य पुरुष" बैठा है,
उसके चरणों में सिर रखकर रो लेने से
मन का तम दूर होता है।


4. अंत में एक विनय: बुद्धि और हृदय का शुद्धिकरण

"आओगे तो तुम नहीं, अपने पास बुला लो,
बस यही तमन्ना से बुद्धि और दिल को उबाल कर शुद्ध कर रहे हैं।"

यह समर्पण का क्षण है —
जहां आत्मा स्वीकार करती है कि अब कोई बाह्य साधन नहीं,
अब तो प्रभु को भीतर बुलाना है,
लेकिन इसके लिए बुद्धि और चित्त को शुद्ध करना अनिवार्य है।


जीवन की कला क्या है?

  • गीता कहती है: कर्म करते जाओ, फल में आसक्ति मत रखो।
  • रामायण कहती है: हर आत्मा राम की प्रतीक्षा कर रही है, धैर्य रखो।
  • भागवत कहती है: सत्संग, संगीत, सेवा और समर्पण से ही शुद्धि सम्भव है।

अंतिम शब्द:

🌿 इस युग में अगर तुम "सितारा" बनना चाहते हो —
तो तुम्हें भीतर की वीणा को साधना होगा,
संगीत भावना की मिश्री घोलनी होगी,
और प्रभु को अपने अंत:करण की महफ़िल में आमंत्रित करना होगा।


🙏 जय श्रीकृष्ण | जय सीता-राम | हरि ओम् तत्सत 🙏
(लेखक: आत्ममंथनरत एक साधक)


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