Friday, June 20, 2025

मैं तो एक ख़्वाब हूँ — आत्मा, अनात्मा और चेतना पर एक बौद्ध दृष्टिकोण

 


मैं तो एक ख़्वाब हूँ — आत्मा, अनात्मा और चेतना पर एक बौद्ध दृष्टिकोण

✍️ लेख व कविता: Inspired by Buddha's Non-Self (अनात्मा) Philosophy


प्रस्तावना: आत्मा बनाम अनात्मा — क्या सच में कुछ "मैं" है?

हजारों वर्षों से भारतीय दर्शन आत्मा (आत्मन) और परमात्मा के मिलन की अवधारणाओं से ओतप्रोत रहा है। उपनिषदों में आत्मा को शाश्वत, अजर, अमर और ब्रह्म से एक रूप माना गया — "अहं ब्रह्मास्मि", "तत् त्वम् असि" जैसे सूत्रों ने इसे सिद्ध किया।

परंतु बुद्ध एक अलग राह पर चले। उन्होंने कहा — “न हि अयं मम, न सो अस्मि, न मे सो अत्ता” — यह मेरा नहीं है, मैं यह नहीं हूँ, यह मेरा आत्मा नहीं है।
बुद्ध ने अनात्मा (non-self) का सिद्धांत रखा — कि व्यक्ति, चेतना और सत्व का कोई स्थायी, स्वतंत्र "स्वरूप" नहीं है।

तो प्रेम क्या है? जुड़ाव क्या है? हम किससे बंधते हैं, और क्यों पीड़ित होते हैं?


कविता: मैं तो एक ख़्वाब हूँ — बुद्ध की दृष्टि से प्रेम, आत्मा और मोह का बोध

तू ही तू है इस जीवन में
मैं कुछ भी नहीं

ये हवाएँ कभी
चुपचाप चली जाएँगी
लौट के फिर कभी
गुलशन में नहीं आएँगी
अपने हाथों में हवाओं
को गिरफ़्तार न कर

साँसें भी कहीं मेरी-तेरी होती हैं?
वही हवा जो तुझमें है, वो मुझमें है
पानी जो तुम पीते हो, वही मुझमें है
खाना जो धरती पे उगता है, वही हम सब खाते हैं
ऊर्जा जो सूर्य से मिलती है, हम सब पाते हैं

वैसे ही चेतना, हम सब में एक-सी प्रवाहित है
जिससे एक-दूजे का दुख-सुख हम अनुभव करते हैं
इस तरह, यह चर-अचर जगत भी
उसी एक सत्ता की छाया है

ना तू मेरा था, ना मैं तेरी थी
बस कुछ लम्हों की मुस्कान थी
ना प्रेम था, ना बंधन था
सिर्फ़ एक भ्रम का संग था

तू 'परमात्मा' कहकर
जिस रूह से जुड़ा था
वो रूह भी एक घटक थी
ना सत्य है, ना असत्य
बस एक मिथ्या की प्रतिछाया थी

मैं भी एक धुंध हूँ
तू भी एक आभास
ना कोई आत्मा, ना परमात्मा
सिर्फ़ कारण-प्रतित्यसमुत्पाद का विश्वास

छोड़ दे इन नामों की मोह-माया
ना कोई ‘तू’ है, ना कोई ‘मैं’
ना कोई मिलन, ना बिछड़ना
बस समय की नदी में बहते चित्र हैं

मैं तो एक ख़्वाब हूँ, इस ख़्वाब से तू प्यार न कर
बुद्धं शरणं गच्छामि
जहाँ मैं मुक्त हो जाऊँ
उस "मैं" से भी
जो हर जन्म में
मुझे बाँध लेता है


तात्त्विक विवेचन: प्रेम, चेतना और "मैं" का विघटन

इस कविता का मूल संदेश यही है — कि जिस ‘मैं’ से हम प्रेम करते हैं, या जिससे हम जुड़ाव महसूस करते हैं, वह अस्थायी है।
बुद्ध कहते हैं:

"सभी धाराएँ अनित्य हैं, सभी अनुभव परिवर्तनशील हैं। पीड़ा की जड़ इसी मिथ्या ‘मैं’ की धारण में है।"

जब हम यह समझते हैं कि:

  • हवा, पानी, खाना, ऊर्जा — सब कुछ साझा है,
  • चेतना भी व्यक्तिगत नहीं, एक समष्टिगत अनुभव है,

तब यह बोध जन्म लेता है कि अलग व्यक्तित्व, अलग आत्मा, केवल एक ख्वाब है।


निष्कर्ष: प्रेम मोह नहीं, करुणा है

बौद्ध दृष्टिकोण में प्रेम कोई आध्यात्मिक वासनात्मक मिलन नहीं, बल्कि करुणा (compassion) है — जो सभी प्राणियों के दुःख-सुख को बिना मोह, बिना अपेक्षा समझने की क्षमता है।

जब हम मोह से नहीं, करुणा से प्रेम करते हैं — तब हम वाक़ई मुक्त होते हैं।


आप क्या सोचते हैं?

क्या आत्मा और परमात्मा के संबंध को छोड़, हम शुद्ध चेतना के एकत्व को अनुभव कर सकते हैं?
कमेंट में अपनी विचारधारा ज़रूर साझा करें।
बुद्धं शरणं गच्छामि।


📌 लेखक: Akshat Agrawal । Akshat's Musings
📍 श्रेणी: दर्शन | बौद्ध विचार | कविताएँ | ध्यान



No comments:

Post a Comment