"शब्द नहीं, कला है सत्य की भाषा" — गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के चिंतन पर एक दृष्टि
“Ultimate truth or absolute consciousness cannot be expressed in words — only through art can it be hinted at.”
– Rabindranath Tagore
हमारे समय के एक महान आत्मा, कवि और दार्शनिक गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का मानना था कि परम सत्य — जिसे वे Absolute Consciousness कहते थे — शब्दों से परे है। यह कोई तर्कसंगत सूत्र नहीं, बल्कि अनुभूति है। ऐसी अनुभूति जो केवल कला के माध्यम से झलक सकती है, परिभाषित नहीं की जा सकती।
कला: आत्मा की अनकही भाषा
गुरुदेव के अनुसार, शब्द सीमित हैं, और सत्य अनंत। जब भी हम किसी महान संगीत, चित्रकला या कविता के सामने होते हैं, तो हम अकसर यह महसूस करते हैं कि कुछ ऐसा है जो शब्दों से परे है — जो मन को छू जाता है, आत्मा को झंकृत कर देता है।
यह वही क्षण होता है जहाँ कला, सत्य की झलक बन जाती है।
वेदांत और टैगोर का मिलन
टैगोर का दृष्टिकोण केवल साहित्यिक नहीं था, वह गहराई से वैदांतिक था। उन्होंने वेदांत के “सत्यं शिवं सुंदरम्” को अपनी कविता और संगीत में जीवन्त कर दिया। उनके लिए ब्रह्म (Absolute Reality) एक दर्शन नहीं, एक संवेदना थी — जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है। और अनुभव की सबसे सशक्त भाषा है — कला।
"गीत मेरा बही, जहां शब्द चुप हो गए"
टैगोर के गीतों और नृत्य-नाटिकाओं में यही प्रयत्न था — शब्दों के पार जाकर एक ऐसी अनुभूति रचना, जो परम की उपस्थिति का संकेत दे सके।
उनका मानना था कि जब शब्द चुक जाते हैं, तब संगीत बोलता है। जब तर्क विफल हो जाता है, तब रूप और रंग के माध्यम से आत्मा संवाद करती है।
आज की दुनिया में यह दृष्टि क्यों ज़रूरी है?
आज जब शिक्षा, कला और संस्कृति को "उपयोगिता" की कसौटी पर तौला जा रहा है, टैगोर की यह चेतावनी और भी प्रासंगिक हो जाती है —
"Truth is not a matter of proof, it is a matter of experience."
टैगोर हमें याद दिलाते हैं कि सत्य की खोज केवल तर्क से नहीं, संवेदना और रचनात्मकता से होती है।
निष्कर्ष: कला — एक ब्रह्म-भाषा
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जीवन और काव्य हमें बार-बार यह सिखाता है कि सत्य की खोज में शब्द सीमित हैं। लेकिन कला — चाहे वह संगीत हो, चित्रकला हो, या कविता — वह खिड़की है जिससे हम ब्रह्म को झाँक सकते हैं।
परम की उपस्थिति को महसूस करना है?
तो तर्क नहीं — तन्मयता और सौंदर्य की ओर चलिए। गुरुदेव वहीं मिलेंगे — मौन में, संगीत में, रंगों में।
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