डिग्री से नहीं, साधना से बनता है कलाकार — विश्वविद्यालय और रचनात्मकता के भ्रमजाल पर एक विचार
आज के शहरी मध्यमवर्गीय समाज में एक आम धारणा घर कर गई है — कि जो विश्वविद्यालय से निकलता है, वह ‘कुछ बन जाता है’। इंजीनियर, डॉक्टर, साइंटिस्ट... और कभी-कभी तो कलाकार भी। लेकिन क्या वाकई ऐसा होता है? क्या किसी संस्थान से निकली डिग्री अपने आप किसी को कलाकार या विचारक बना देती है?
शिक्षा: सिर्फ शुरुआत है, उपलब्धि नहीं विश्वविद्यालय शिक्षा का एक पड़ाव है — एक मंच, जहां आपको दिशा मिल सकती है, दृष्टि नहीं। यह आपको औज़ार देता है, लेकिन उनका सही उपयोग कैसे करना है, यह आपको खुद सीखना होता है। सच्ची शिक्षा वह है जो आपको अपने भीतर झांकने पर मजबूर करे। डिग्री तो कई पा लेते हैं, लेकिन खुद को जानने और जीवन का उद्देश्य समझने वाले विरले ही होते हैं।
शोध और परशोध: वह यात्रा जिसे लोग भूल जाते हैं आज अधिकतर युवा शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद ही खुद को ‘तैयार’ मान लेते हैं। लेकिन सच्ची तैयारी तो वहीं से शुरू होती है — शोध (Research) और परशोध (Post-Research Fellowship) के माध्यम से। पोस्ट-रिसर्च फेलोशिप महज़ कोई अकादमिक प्रोग्राम नहीं, यह एक साधना है। यह उस चरण का नाम है जहां व्यक्ति किसी गुरु, प्रोफेसर या विशेषज्ञ के मार्गदर्शन में अपने ज्ञान को अनुभव में बदलता है। वहीं से जीवन की गहराइयों में उतरने की प्रक्रिया शुरू होती है।
कलाकार बनने की राह अलग है कलाकार, चिंतक, नवाचारक — ये केवल पाठ्यक्रम के उत्पाद नहीं होते। ये जीवन के अनुभव, आत्म-अवलोकन और निरंतर अभ्यास से बनते हैं। डिग्रीधारी होना अच्छी बात है, लेकिन क्या वह आपको वह दृष्टि दे पाई है जिससे आप दुनिया को कुछ नया दे सकें? अगर नहीं, तो अभी यात्रा अधूरी है।
निष्कर्ष: भ्रम से बाहर आइए हमें यह स्वीकार करना होगा कि विश्वविद्यालय केवल एक शुरुआत है — मंज़िल नहीं। अगर हम चाहते हैं कि हमारे समाज में सच्चे कलाकार, विचारशील नागरिक और मौलिक रचनाकार पैदा हों, तो हमें शिक्षा को साधना के रूप में देखना होगा, न कि केवल रोजगार के साधन के रूप में।
कलाकार वही बनता है जो डिग्री के बाद भी खुद को तलाशता रहे — लगातार, ईमानदारी से, और धैर्यपूर्वक।
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