"धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र: महाभारत का अंतर्यात्रा-संदेश और तुलसी राम-गीता की व्याख्या"
हम जिन पृष्ठों को आज महाभारत के नाम से जानते हैं, वे मूल रूप से "जय काव्य" के नाम से प्रतिष्ठित थे — एक ऐसा महाकाव्य जो केवल युद्ध कथा नहीं, अपितु धर्म और कर्म की गहन दार्शनिक यात्रा है। इसकी पहली पंक्ति ही – "धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे..." – यह स्पष्ट करती है कि यह युद्धभूमि केवल भौतिक नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक और नैतिक संघर्षभूमि है, जो हर मनुष्य के भीतर घटित होती है।
महाभारत: अंतर्युद्ध की कथा
"धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र" — इन शब्दों में छुपा है एक गूढ़ संकेत। कुरुक्षेत्र केवल हरियाणा का एक ऐतिहासिक स्थल नहीं, बल्कि मानव हृदय का वह क्षेत्र है जहाँ धर्म और अधर्म, सज्जनता और विकृति, सत्य और माया के बीच सतत संग्राम चलता रहता है। महाभारत के पात्र प्रतीक हैं हमारे मन के विभिन्न स्वभावों के — अर्जुन हमारी जिज्ञासा और शंका है, कृष्ण हमारी विवेकशीलता और दिव्य प्रेरणा। यह युद्ध बाह्य नहीं, अंतर्यात्रा है — स्वयं के भीतर के काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे विजातीय अवगुणों के विरुद्ध सत्य, प्रेम, करुणा, अहिंसा, त्याग जैसे सजातीय गुणों की विजय की प्रक्रिया है।
संयम और धैर्य: आध्यात्मिक शस्त्र
इस महाकाव्य में बार-बार यह प्रतिपादित होता है कि बिना संयम, धैर्य, और ईश्वरीय प्रेरणा के कोई वास्तविक विजय संभव नहीं। अर्जुन जब मोह और ममता से ग्रसित होकर अपने कर्तव्य से विमुख होता है, तब श्रीकृष्ण उसे गीता का उपदेश देते हैं, जो समस्त मानवता के लिए दिशा-सूचक बन जाता है — "कर्मण्येवाधिकारस्ते..." के माध्यम से।
तुलसीदास और राम-गीता: वही तत्त्व, नया संदर्भ
इसी धर्म और आत्मसंयम के तत्व को गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के लंका कांड में राम-गीता के रूप में संक्षेप में प्रस्तुत किया है। रामजी विभीषण को उपदेश देते हुए कहते हैं:
"जेहि जय होई सो स्यंदन आना।
करेहु विजेयु सहित संघ जाना॥"
अर्थात्, जिसको विजय प्राप्त होनी है, वही रथ लेकर आता है — यह विजय भौतिक नहीं, बल्कि आत्मिक है। यहाँ 'रथ' प्रतीक है साधना, विवेक, संयम, और भक्तिभाव से सज्ज गुणों का। भगवान राम के इस उपदेश में भी वही महाभारत का गूढ़ तत्त्व है — विजय अंतर्मन की होती है, और साधन वही होता है जो धर्म-संयम से संचालित हो।
निष्कर्ष: महाकाव्य, केवल कथा नहीं – एक जीवन-दर्शन
महाभारत और मानस — दोनों ही ग्रंथ हमें यही सिखाते हैं कि जीवन केवल कर्मभूमि नहीं, धर्मक्षेत्र भी है। युद्ध बाहर कम, भीतर अधिक होता है। और इस युद्ध में विजय पाने हेतु आवश्यक है — ईश्वर में आस्था, संयम का रथ, और सजातीय गुणों का शस्त्र।
जब व्यक्ति अपने भीतर के कुरुक्षेत्र में सजग होकर धर्म के साथ खड़ा होता है, तभी वह सच्चे अर्थों में विजयी होता है।
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