Sunday, May 25, 2025

आधुनिक जीवन में धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र और राम-गीता की प्रासंगिकता

भाग 2: आधुनिक जीवन में धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र और राम-गीता की प्रासंगिकता

आज जब हम तकनीकी, आर्थिक और सामाजिक प्रगति के शिखरों को छू रहे हैं, तब भी भीतर एक अदृश्य संग्राम जारी है — तनाव, लोभ, प्रतिस्पर्धा, असुरक्षा और आत्मविस्मृति का। बाह्य सफलता के पीछे भागते हुए हम अक्सर अपने अंतर्युद्ध को अनदेखा कर देते हैं। ऐसे में महाभारत और रामचरितमानस की शिक्षाएं और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती हैं।

1. कार्यस्थल पर कुरुक्षेत्र: नैतिकता बनाम सफलता

आज के कॉर्पोरेट और पेशेवर जीवन में अक्सर हमें ऐसे निर्णयों का सामना करना पड़ता है जहाँ धर्म (नैतिकता) और लोभ (लाभ) में टकराव होता है। क्या मैं किसी को नीचा दिखाकर आगे बढ़ूं, या सहयोग से बढ़ने का प्रयास करूँ?

यहाँ कृष्ण का गीता उपदेश मार्गदर्शक बनता है —
"स्वधर्मे निधनं श्रेयः" — अर्थात, अपना धर्म निभाते हुए मरना भी श्रेयस्कर है, बजाय दूसरों का अधर्म लेकर जीतने के।

2. पारिवारिक जीवन में संतुलन: संयम और करुणा

घर-परिवार, रिश्ते-नाते — ये सब भी हमारे 'धर्मक्षेत्र' हैं। यहाँ क्रोध, मोह और अहंकार जैसे अवगुण प्रकट होते हैं। यदि हम राम-गीता की तरह संयम, प्रेम और क्षमा का रथ लेकर चलें, तो हर रिश्ता एक तीर्थ बन सकता है।

"जेहि जय होई सो स्यंदन आना" — यानी, जो संयमी और समर्पित है, वही रिश्तों में भी विजयी होगा।

3. सामाजिक मीडिया: मत्सर बनाम विवेक

आज की डिजिटल दुनिया में मत्सर (ईर्ष्या) और मद (अहम्) सबसे बड़े अवरोध बन चुके हैं। दूसरों की सफलता देखकर व्यग्र होना या दिखावे के लिए स्वयं को श्रेष्ठ दिखाना — ये हमारे मन के कुरुक्षेत्र में ही जन्म लेते हैं।
यहाँ गीता का यह भाव स्मरणीय है:
"योगः कर्मसु कौशलम्" — अर्थात, अपने कर्म में दक्षता ही सच्चा योग है, न कि दिखावा।

4. युवाओं के लिए दिशा: आत्म-परिचय और विवेक

आज की युवा पीढ़ी भटकाव, तुलना और मानसिक तनाव के बीच जी रही है। उन्हें अर्जुन की तरह मार्गदर्शन चाहिए, और कृष्णतत्त्व की आवश्यकता है — जो यह बताए कि सच्चा युद्ध स्वयं को जानने का है, न कि दूसरों को हराने का।

इस दृष्टि से महाभारत और रामचरितमानस न केवल धार्मिक ग्रंथ हैं, बल्कि मानव मन की संचालन पुस्तिका (Operating Manual of the Human Soul) हैं।


समापन: अपने भीतर के अर्जुन को जगाइए

हर दिन, हर परिस्थिति में हम अपने धर्मक्षेत्र में खड़े होते हैं। क्या हम उस परिस्थिति में अर्जुन बनकर पीछे हटेंगे, या कृष्ण के मार्गदर्शन में आगे बढ़ेंगे?

हर बार जब हम सत्य, प्रेम, करुणा और त्याग का वरण करते हैं, हम अपने भीतर के 'दुर्योधन' पर विजय प्राप्त करते हैं।

स्मरण रखें —
"धर्मो रक्षति रक्षितः" — जो धर्म की रक्षा करता है, वही स्वयं की रक्षा करता है।



No comments:

Post a Comment