विस्तारित कविता:
दो घड़ी वो जब पास आ बैठे, मुझको प्रवचन सुना बैठे,
सोचा था कुछ देर मिल बैठ प्रेमालाप करेंगे,
वो दीन-दुनिया की खबर सुना बैठे।
चेहरे की वो मासूमियत, जो कभी मुस्कान बन बहती थी,
अब किसी न्यूज़ एंकर की तरह, ताज़ा बहस में ढलती थी।
मैंने सोचा, शायद आज पुराने पलों की बात होगी,
पर वो तो मानो संसद की कार्यवाही लेकर आ बैठी थी।
महंगाई, पड़ोसी की नीयत, रिश्तेदार की नासमझी,
हर मुद्दे पर उनका भाषण जैसे लोकसभा की अध्यक्षता हो।
मैंने धीरे से कहा —
"इतना ही शौक है मिर्च-मसाले का, तो मेरी जान छोड़ो,
एक कथा उपन्यास लिख डालो!"
कभी यह पल हमारे होते थे, आंखों में चमक होती थी,
अब इन लम्हों में रिपोर्टिंग और आलोचना की झलक होती है।
प्रेम कहाँ गया, वो चुप्पियाँ कहाँ खो गईं,
जब साथ बैठना खुद एक सज़ा हो गई।
ब्लॉग विचार:
आज के संबंधों में संवाद का स्थान धीरे-धीरे प्रवचन ने ले लिया है।
जब दो लोग कुछ पल साथ बैठते हैं, तो वह समय प्रेम, सहानुभूति, और मानसिक सुकून का होना चाहिए — ना कि समाज का विश्लेषण या किसी तीसरे की बुराई का अखाड़ा।
इस कविता में एक गूढ़ कटाक्ष है:
जब आपके जीवनसाथी या करीबी हर मुलाकात को 'जनरल नॉलेज' या 'समाज दर्शन' की क्लास बना देते हैं, तब रिश्ते थकने लगते हैं। हर व्यक्ति चाहता है कि कभी-कभी बस सुना जाए, समझा जाए — बिना जज किए, बिना सिखाए।
तो क्या करें?
- हर संवाद को सुधार का मंच न बनाएं।
- कुछ पल ऐसे हों जहां सिर्फ हंसी हो, बचपना हो, और प्रेम की मासूमियत हो।
- और सबसे जरूरी — रिश्तों को कंटेंट मत बनाइए, उन्हें जिएं।
शायद हम सभी को कभी-कभी यह पूछना चाहिए:
क्या हम अपने साथी के दिल में जगह बना रहे हैं, या बस दिमाग में शोर?
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