“सूरत बदलनी चाहिए… लेकिन नीयत का क्या?”
विस्तारित कविता:
फिर वो बड़े ज़ोर से तमतमा कर बोले,
"कुछ भी हो, ये सूरत बदलनी चाहिए!"
मैंने धीमे से कहा —
"सूरत बदलेगी कैसे, जब नीयत में ही खोट है,
जब कुर्सी खुद 'सेवा' नहीं, सत्ता की चोटी है।"
वो बोले — "हमने क्रांति की ज्वाला देखी है,
जनता की आंखों में भूख, उम्मीद और जंग देखी है।"
मैंने कहा — "जनता की आंखों में तो सिर्फ धूल है,
जो हर चुनाव में झूठे वादों से उड़ाई जाती है।
जिन्हें तुम क्रांति कहते हो, वो दरअसल
पुराने चेहरे पर नया मुखौटा लगाना है।"
उनका चेहरा लाल था, भाषण गरम था,
पर जेब में था वही सिस्टम, वही चालबाज़ी का धर्म था।
मैंने सोचा —
'जब आत्मा ही बिक चुकी हो,
तो नारा चाहे जितना ऊँचा हो,
वो सिर्फ़ गूँजता है, बदलता नहीं।'
ब्लॉग विचार:
हमारे देश में हर चुनाव, हर आंदोलन, हर भाषण की शुरुआत "परिवर्तन" के नारे से होती है।
नेता गरजते हैं — "अबकी बार बदलाव चाहिए", "सूरत बदलनी चाहिए", "नया भारत चाहिए"…
पर यह सब काग़ज़ी आग की तरह होते हैं — तेज़ जलती हैं, पर रोशनी नहीं देती।
असल सवाल यह है:
क्या सूरत वाकई नीयत से अलग हो सकती है?
जब व्यवस्था के कर्णधार सिर्फ अपनी छवि की चिंता करते हैं,
जब नीतियां ट्विटर ट्रेंड और टीवी डिबेट के मुताबिक बनती हैं,
जब मंत्रिमंडल का चयन काबिलियत से नहीं, नज़दीकी और चाटुकारिता से होता है —
तो सूरत बदलने की बातें सिर्फ पोस्टर बन जाती हैं, परिवर्तन नहीं।
"नीयत" वह धड़कन है जो सिस्टम को जीवन देती है।
नीयत में खोट हो, तो संविधान भी सिर्फ एक किताब है।
नीयत साफ़ हो, तो बंजर ज़मीन पर भी हरियाली आ सकती है।
क्या हम बदलाव चाहते हैं या बस बदलाव का अभिनय?
- अगर हम सच में बदलाव चाहते हैं,
तो हमें चेहरों से नहीं, चरित्र से सवाल करने होंगे। - नारे नहीं, नीति की निरंतरता देखनी होगी।
- और सबसे ज़रूरी — जनता को भी अपनी भूमिका निभानी होगी,
सिर्फ वोट डालकर नहीं, सवाल उठाकर, ज़िम्मेदारी लेकर।
No comments:
Post a Comment