Tuesday, April 29, 2025

जब घरवाली बन जाए गुरु – एक प्रेम, परिहास और परिपक्वता की कहानी

 कविता:

क्या होता है जब घरवाली गुरु बन जाए या गुरु बना ले,
वही होता है जो मंजूर-ए-ख़ुदा होता है।
प्रेम रफ़ूचक्कर और घर में अशांति का माहौल होता है।

शुरू में तो लगता है ज्ञान बरस रहा है,
हर बात में तर्क, हर बात में अर्थ छिपा है।
पर धीरे-धीरे जब उपदेश दवा से ज़्यादा नसीहत लगने लगे,
तब आदमी खुद को भूल, एक शिष्य से नौकर बनने लगे।

रसोई में भी प्रवचन, बैठक में भी ध्यान,
जीवन बन जाए एक अंतहीन सत्संग का मैदान।
न सवाल करने की छूट, न गलती पर छूट,
हर बहस में हार तय और मौन ही सबसे बड़ी सूझ।

प्रेम, जो कभी नज़रों से बहता था चुपचाप,
अब वो प्रेम समय-तालिका में बंधा हुआ पाठ बन जाता है।
जहाँ स्पर्श से ज़्यादा 'समझदारी' की उम्मीद,
और हर 'आई लव यू' से पहले तीन उपदेशों की ज़रूरत होती है।

ब्लॉग विचार:

इस कविता में हास्य भी है और गहराई भी। भारतीय सामाजिक संरचना में "गृहस्थ जीवन" को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का केंद्र माना गया है। पर जब जीवन साथी एक-दूसरे का "गुरु" बनने लगे — चाहे आदर्शों में, व्यवहार में या निर्णयों में — तब संबंधों की सहजता पर एक भार-सा आ जाता है।

गुरु का स्थान पूज्य होता है, पर वह स्नेह के साथ-साथ दूरी भी लाता है।
एक प्रेमपूर्ण रिश्ता, जहाँ दो व्यक्ति एक-दूसरे के पूरक होते हैं, वहां अगर कोई एक 'सर्वज्ञ' बन जाए तो दूसरा 'शिष्य' नहीं, 'वंचित' महसूस करने लगता है।

प्रेम में मार्गदर्शन हो सकता है, पर उपदेश नहीं। रिश्तों में प्रेरणा हो सकती है, पर प्रतिस्पर्धा नहीं। और सबसे महत्वपूर्ण बात — घरवाली गुरु बने या घरवाला — अगर प्रेम गायब हो जाए, तो घर आश्रम नहीं, कारागार लगने लगता है।

तो समाधान क्या है?
गुरु बनने से पहले, प्रेमी बनें।
सही और गलत के भेद से पहले, रिश्ते को महसूस करें।
और कभी-कभी — बस चुप रह कर साथ बैठना ही सबसे बड़ा उपदेश होता है।



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