प्रसाद: जीवन जीने की कला (art of living)
जो हम अपनी वाणी, व्यवहार, आचरण ( आदान प्रदान) से दूसरों को प्रसन्नता (प्रसीदति) देते हैं, उसे हम प्रसाद कहते है। अगर हमारी वाणी कटु है (ईर्ष्या द्वेष से भरी हुई), व्यवहार दूषित है (छल कपट) और आचरण असभ्य है (दिखावा, दूसरे को नीचा दिखाना, अपमानित करना) तो वो प्रसाद की श्रेणी में नही है। उसे भगवान तो क्या एक जानवर भी ग्रहण नही करना चाहता।
Consumerism, selling, advertising, marketing क्या प्रसाद है? क्या इससे GDP बढ़ती है या लोगों का जन जीवन उन्नत, सुख सुविधाओं से भरपूर होता है? विकास की परिभाषा क्या हो इसपर अर्थशास्त्रियों का सदियों से मतभेद रहा है । पर प्रसाद की दृष्टि से देखें तो जो बिना भेद भाव, ऊंच नीच के सबको बांटा जाए वही प्रसाद हो सकता है। अब सवाल उठता है किसको कितना मिले तो ये न्याय का विषय है। स्वाभाविक है कि पात्रता के अनुसार मिलना चाहिए - ज्यादा श्रम करने वाले को ज्यादा भूख लगती है , ये प्रकृति का विधान है। आलसी, लालची, प्रमादी व्यक्ति को तो मंदिर के बाहर बैठ कर भीख ही मांगनी पड़ती है, उनके लिए वही उपयुक्त भी है।
पर ब्राह्मण, समाज उत्थान में लगे व्यक्ति का अधिकार सबसे ऊपर है, उसका पेट फूला रहे यही उपयुक्त, शोभनीय है।
ब्राम्हण की संतुष्टि देखकर ईर्ष्या करने वाला रावण सदृश ही होता है ।
जो हम अपनी वाणी, व्यवहार, आचरण ( आदान प्रदान) से दूसरों को प्रसन्नता (प्रसीदति) देते हैं, उसे हम प्रसाद कहते है। अगर हमारी वाणी कटु है (ईर्ष्या द्वेष से भरी हुई), व्यवहार दूषित है (छल कपट) और आचरण असभ्य है (दिखावा, दूसरे को नीचा दिखाना, अपमानित करना) तो वो प्रसाद की श्रेणी में नही है। उसे भगवान तो क्या एक जानवर भी ग्रहण नही करना चाहता।
Consumerism, selling, advertising, marketing क्या प्रसाद है? क्या इससे GDP बढ़ती है या लोगों का जन जीवन उन्नत, सुख सुविधाओं से भरपूर होता है? विकास की परिभाषा क्या हो इसपर अर्थशास्त्रियों का सदियों से मतभेद रहा है । पर प्रसाद की दृष्टि से देखें तो जो बिना भेद भाव, ऊंच नीच के सबको बांटा जाए वही प्रसाद हो सकता है। अब सवाल उठता है किसको कितना मिले तो ये न्याय का विषय है। स्वाभाविक है कि पात्रता के अनुसार मिलना चाहिए - ज्यादा श्रम करने वाले को ज्यादा भूख लगती है , ये प्रकृति का विधान है। आलसी, लालची, प्रमादी व्यक्ति को तो मंदिर के बाहर बैठ कर भीख ही मांगनी पड़ती है, उनके लिए वही उपयुक्त भी है।
पर ब्राह्मण, समाज उत्थान में लगे व्यक्ति का अधिकार सबसे ऊपर है, उसका पेट फूला रहे यही उपयुक्त, शोभनीय है।
ब्राम्हण की संतुष्टि देखकर ईर्ष्या करने वाला रावण सदृश ही होता है ।
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