भूमि, कर-व्यवस्था और भारत के शूद्र वर्ग का इतिहास: मौर्य काल से आधुनिक भारत त
भारत का इतिहास केवल राजवंशों, धर्मों या शास्त्रों का इतिहास नहीं है। यह भूमि, कर, ग्राम प्रशासन, उत्पादन और श्रम–निर्भरता का इतिहास है। जिस किसी समाज में भूमि-स्वामित्व, कर नियंत्रण और surplus extraction जिस वर्ग के हाथ में रहे, वही वर्ग सत्ता, धर्म, संस्कृति, शिक्षा, कानून और सामाजिक प्रतिष्ठा पर प्रभुत्व रखता है। भारत में यह सत्ता संरचना, कई बार राजनीतिक सत्ता बदलने के बावजूद, असाधारण रूप से सतत बनी रही — मौर्य काल से लेकर medieval राजपूत–मुगल युग तक, औपनिवेशिक काल तक और अंततः स्वतंत्र भारत के भूमि सुधारों तक।
भूमि–स्वामित्व = सत्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा
और
भूमिहीन श्रम = dependency और अधीनता
यह सूत्र भारत की कृषि-राजनीति और सामाजिक व्यवस्था को समझने की कुञ्जी है।
मौर्य काल: भूमि-राजस्व, श्रम और elite control
चंद्रगुप्त और कौटिल्य ने भारतीय राज्य-व्यवस्था में भूमि-राजस्व और कर प्रणाली को वैज्ञानिक रूप दिया। भूमि राज्य-नियंत्रित मानी गई; कृषि उत्पादन से कर (आमतौर पर 1/6 या 1/4 हिस्सा) राज्य का वैधानिक claim था। जो वर्ग भूमि पर स्वामित्व या उत्पादन का नियंत्रण रखता था, वही करदाता था। यह landholding producer वर्ग वैश्य और स्थानीय अग्रणी कृषक समुदाय था।
भूमिहीन किसान, खेत-मजदूर, sharecropper, पशुपालक, हलवाहे — जिनका श्रम कृषि के लिए अनिवार्य था — प्रत्यक्ष करदाता नहीं थे। उनकी स्थिति economic servitude जैसी थी, पर उन्हें दास की तरह किसी व्यक्ति की property नहीं माना जाता था। उनका village membership, housing, family और dignity सुरक्षित थी, पर economic autonomy नहीं।
यानी hierarchy economic थी, chattel slavery नहीं।
इस समय varna system occupational था, न rigid caste system। mobility की संभावना थी। सामाजिक inequality थी, पर जन्मगत coercion नहीं।
बौद्ध और जैन काल: आध्यात्मिक बराबरी, पर सामाजिक continuity
बौद्ध और जैन धर्मों ने आध्यात्मिक बराबरी का संदेश दिया। बुद्ध ने कहा कि मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से ऊँचा-नीचा होता है। संघ में सभी वर्णों का प्रवेश था। जैन परंपरा में सभी आत्माएँ आध्यात्मिक रूप से समान हैं।
लेकिन village economy धर्म-शास्त्र से नहीं बदलती। irrigation, granary, कर-प्रणाली, भूमि-स्वामित्व, ग्राम निर्णय और surplus extraction elite वर्गों के पास ही बना रहा। शूद्र कृषक cultivating labour के रूप में कार्य करते रहे, पर भूमि-स्वामित्व नहीं मिला।
बौद्ध-जैन आध्यात्मिक आदर्श ने varna hierarchy की वैधानिकता को चुनौती दी, पर यह आदर्श भूमि-राजस्व संरचना को नहीं बदल पाया। समाज का संचालन धर्म के सिद्धांतों से नहीं, बल्कि आर्थिक compulsions से होता था।
यानी बौद्ध काल caste-less ethics रखता था, पर economic hierarchy कायम रही।
गुप्त और उत्तर-गुप्त युग: भूमि दान, स्थानीय elites और सामन्ती germination
गुप्त काल में भूमि-दान, मंदिर-अनुदान, ब्राह्मणिक ritual hierarchy और local agrarian authority को वैधानिकता मिली। राजाओं ने कृषि भूमि और उसके revenue rights ब्राह्मण, मंदिरों और स्थानीय सरदारों को दिए। village autonomy बढ़ी, और राज्य की सीधी निगरानी कम हुई।
यहीं से feudal germination शुरू होती है:
- भूमि का उत्पादन local lords के control में
- कृषक hereditary cultivating tenants के रूप में
- surplus extraction ग्रामीण elite के हाथ में
यानी occupational varna धीरे-धीरे hereditary economic hierarchy में बदलता है। social mobility कम होने लगती है। caste अब ritual नहीं, बल्कि भूमि आधारित political economy बनने लगती है।
मध्यकाल (1000–1600 CE): hereditary caste + feudal domination
इस काल में land control + caste hierarchy + hereditary labour एक साथ fused हो जाते हैं। यह भारत की सबसे निर्णायक सामाजिक-आर्थिक transformation है।
- village authority hereditary
- landlord class hereditary
- cultivating groups hereditary
- occupational labour roles hereditary
यही वह क्षण है जहाँ varna jati बन जाता है।
caste अब जन्मगत नियति बन जाती है। कृषक समुदाय — विशेषकर शूद्र वर्ग और non-elite peasantry — अपने श्रम पर आधारित, पर भूमि-अधिकार से वंचित, village power से subordinate, और extraction-based coercion के अधीन हो जाते हैं।
यही medieval caste oppression का मूल है। यह केवल religious नहीं, बल्कि agrarian political coercion है।
मुगल काल: peasant personhood और limited legal recognition
मुगल प्रशासन में एक महत्वपूर्ण बात यह थी कि cultivating peasants के occupancy rights को कानूनी वैधता मिली। यदि कोई कृषक पीढ़ियों से खेत जोत रहा है, तो उसे arbitrary eviction से बचाया गया। यह पहली बार था कि peasant — भले lower caste हो — एक legal economic actor माना गया।
लेकिन:
- land title अभी भी जमींदार या jagirdar के पास
- extraction rights elite के पास
- peasant rights = cultivation, not ownership
इसलिए oppression कम नहीं, पर dignity और tenancy security बढ़ी।
औपनिवेशिक युग: पहली बार lower-caste cultivators को ownership
ब्रिटिश revenue systems ने पहली बार बड़ा structural बदलाव लाया — विशेषकर Ryotwari System (Madras, Bombay, Karnataka, Andhra)। इसमें:
land title directly ryot के नाम हुआ
यानी cultivator — चाहे वह शूद्र/OBC/low caste ही क्यों न हो — भूमि का कानूनी मालिक बन सकता है।
यह भारतीय rural sociology का पहला major reversal है। पहली बार भूमि = किसान का अधिकार, न intermediary landlord का।
Permanent Settlement वाले क्षेत्रों (Bengal–Bihar) में ज़मींदारी बनी रही, पर tenancy protection बढ़ी।
औपनिवेशिक कानूनों ने पहली बार peasant को legal individuality, bargaining power और judicial protection दिया।
स्वतंत्र भारत: जमींदारी उन्मूलन और भूमि-न्याय
1950–1980 के भूमि सुधारों ने सामन्ती और hereditary landlordism को कानूनी रूप से समाप्त कर दिया। tenancy abolition, land ceilings और redistribution के कारण:
- actual tillers को भूमि स्वामित्व मिला
- कई OBC/शूद्र कृषक वर्ग पहली बार भूमि मालिक बने
- rural caste power structure उलटने लगा
- democratic politics में OBC upliftment की नींव बनी
यह परिवर्तन 2500 वर्षों में पहली बार हुआ — land, dignity और political equality एक साथ मिले।
इतिहास का सबसे बड़ा निष्कर्ष
भारतीय subaltern communities — शूद्र, दलित, आदिवासी, lower peasantry — ने हजारों वर्षों तक भूमि-स्वामित्व, village power और surplus extraction से वंचित जीवन जिया, चाहे सत्ता हिंदू शासकों के पास हो, बौद्ध patronage चला हो, जैन शासन हुआ हो, सिख राज रहा हो, या मुगल–राजपूत–जमींदारी domination रहा हो।
धर्मों के ethical आदर्श बराबरी के थे, पर सामाजिक-आर्थिक रूप से landed elite हमेशा dominant रहा।
Indian inequality is not fundamentally religious — it is agrarian and political.
Rigid caste oppression medieval feudalism का result है, लेकिन economic hierarchy हमेशा से थी।
वंचित वर्गों का संघर्ष जल, जंगल, जमीन के अधिकारों के लिए प्राचीन काल से आज तक चलता आया — क्योंकि भूमि, पानी, उत्पादन और से surplus पर नियंत्रण elite के पास रहा। ownership और autonomy lower castes को बहुत देर से मिली।
धर्म बदलने से inequality नहीं बदली, क्योंकि village economy जमीन से संचालित थी, theology से नहीं।
इसलिए इतिहास का सबसे सटीक वाक्य है:
“भारत में जिसका भूमि पर नियंत्रण था, वही सामाजिक और राजनीतिक सत्ता का स्वामी था; जिसे भूमि से वंचित रखा गया, उसे सदैव आर्थिक गुलामी, श्रम-निर्भरता और सामाजिक अन्याय सहना पड़ा।”
और इस पूरे subaltern इतिहास का निचोड़:
Subaltern communities की लड़ाई हमेशा धर्म से नहीं, भूमि से रही। जल–जंगल–जमीन पर अधिकार ही उनका वास्तविक सामाजिक न्याय है।
Closing Thought
भारत में caste oppression का मूल धार्मिक भावनाओं में नहीं, बल्कि भूमि-स्वामित्व, surplus extraction और hereditary rural governance में खोजा जाना चाहिए। धर्मों ने बराबरी का आदर्श दिया, पर economic structures ने उसे लागू नहीं होने दिया। आधुनिक भूमि सुधार और democratic politics पहली बार इन समुदायों को वह dignity देते हैं, जो 2500 वर्ष की hierarchy ने उनसे छीन रखी थी।
सामाजिक न्याय का भविष्य भी जल–जंगल–जमीन के equitable अधिकार में ही है।
No comments:
Post a Comment