Sunday, June 8, 2025

प्रकृति का सत्य: खोया भारत, पाया अफ्रीका में

 प्रकृति का सत्य: खोया भारत, पाया अफ्रीका में

संसार का रचाया प्रपंच सब बुद्धि का खेल है,
वरना आदिवासियों और जंगली जानवरों का भी क्या मेल है?
न कोई राजनीति, न छल की भाषा,
बस जंगल की लय और जीवन की आशा।

घड़ी की सुई की तरह उत्तर में बुद्धि घूमती थी,
हर बात तर्क, हर बात लक्ष्य — बस औकात नापने की भूख थी।
जब दक्षिण में जाकर देखा तो सिर चकराया,
घड़ी की सुई घूमी एंटी क्लॉकवाइज — कुछ नया सुझाया।

जो खोया था भारत में — वो सरलता, वो अपनापन,
वो पेड़ों संग संवाद, वो मिट्टी का अपनापन —
वो सुख, वो चैन, वो गूंजती हँसी,
केन्या की धूप में, मसाई मारा की छांव में पाई किसी अद्भुत प्रसन्नता सी।

प्रकृति और इंसान का मिलन वहाँ न युद्ध था, न समझौता,
बस सहअस्तित्व — जैसे आत्मा की गूँज में हो कोई सौता।
मसाई योद्धा, जैसे धरती के पुत्र,
उनकी आँखों में जंगल की भाषा, और मुस्कान में धूप की दृष्टि अपूर्व।

मनुष्य चाहे तो धरती, पाताल, सब एक कर दे,
पर धरती मां के लाल तो हिमालय की गोद में ही खेले।
जहाँ बर्फ गाती है, और देवदार ध्यान करते हैं,
जहाँ आत्मा आज़ाद है, और स्वप्न भी धरती पर चलते हैं।

भरतार ने हरी-भरी दी दुनिया — पर्वत, सागर, वनों की माया,
पर आदमखोरों के लिए उसका क्या मोल है? बस दोलत की छाया।
लोभ ने पेड़ काटे, नदियाँ बाँधी, चिड़ियों को खामोश किया,
और फिर कहा — "प्रगति हो रही है!" ये कैसा न्याय किया?

हे मानव! लौट आ उस स्वर में जहाँ ध्वनि नहीं, ध्येय है,
जहाँ जंगल तुझसे डरता नहीं, तेरा संगी-सहाय है।
समझ ले — बुद्धि के खेल ने जो छीन लिया भारत से,
वो अब भी संभव है — अगर तू सीखे केन्या के जंगल से।

---

No comments:

Post a Comment