यूरोपियन प्रबोधन, उपनिवेश और आधुनिकता का खेल
(एक छल और सत्ता का खेल – प्रज्ञा, माया और नियति के दृष्टिकोण से)
पूछे वो — "ये खेल कैसा है?"
मैंने कहा —
"जाने वो जो ये माया जाल रचने वाला,
मेरी समझ में तो ये शकुनि के पासे जैसा है।"
प्रबोधन की बात थी, पर आत्मा नहीं जगी,
चमकती बुद्धि थी, पर करुणा वहीं ठगी।
देस-देस घूमे, ज्ञान का ढोल पीटा,
पर हर क़दम पे किसी बस्ती को लूटा।
मन की छलांग थी, विज्ञान की उड़ान थी,
पर ये भी केवल राजस सत्ता की पहचान थी।
जहाँ ज्ञान से उजाला होना था,
वहाँ बंदूक़ें चलीं, और खून से स्याही बहती रही।
कहने को आधुनिकता, पर दृष्टि संकीर्ण थी,
मनुष्यता का मुखौटा, पर भीतर हिंसा की तंद्रा गहरी थी।
सभ्यता का पाठ पढ़ाया, पर भाषा छीनी, जड़ें उखाड़ी,
मंदिर तोड़े, जंगल काटे, और आत्मा पर जंजीरें डालीं।
उन्होंने कहा — "हम तुम्हें तरक़्क़ी देंगे,"
और दे गए नक़्शे, सरहदें, और टूटे सपने।
ज्ञान का सौदा किया, और विवेक को गिरवी रखा,
हर पुस्तक के पीछे एक बंदूक छुपा रखी थी।
मेरे गाँव में भी कोई आया था,
सफेद कपड़े पहने, पवित्र ग्रंथों की बातें करने वाला,
लेकिन उसकी आँखों में समंदर की लहरें नहीं,
लालच की चिंगारियाँ थीं।
बुद्धि की उड़ान है, मन की छलांग है,
हमने तो केवल पक्षियों को आसमान में उड़ते देखा है
और हिरण को छलांग लगाते देखा।
पर ये जो छलांग थी, वो आत्मा को पीछे छोड़ गई।
ये खेल है — शब्दों का, सिद्धांतों का, नक़्शों का,
जहाँ विजेता वो है जो इतिहास लिखता है,
और हारने वाला — बस आँसुओं की धार छोड़ जाता है।
अब समय है —
इन नक़्शों से परे देखने का,
शकुनि के पासों को पहचानने का,
और फिर से मनुष्य को
मनुष्य की तरह जीने देने का।
मनिषियों, विचारकों ने प्रज्ञा चक्षु से कालचक्र को घूमते देखा,
कृष्ण के चक्र ने हस्तिनापुर के सिंहासन को बदलते देखा।
अशोक के धम्म चक्र ने धम्म के उतार-चढ़ाव को देखा।
फिर आई ईसा पूर्व, शक संवत की कालगणना,
जिसने युग परिवर्तन को त्वरित गति से सेकेंड, मिनट, घंटों में बदलते देखा।
चाहे कालचक्र को जितनी भी तेजी से घुमाओ,
नियति अपना काम करेगी, उसकी चाल अपने नियम से ही चलेगी।
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Sunday, June 8, 2025
यूरोपियन प्रबोधन, उपनिवेश और आधुनिकता का खेल
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