Wednesday, June 4, 2025

आत्म स्थित, स्थितिप्रज्ञा और धर्म



आपका कथन:

"आत्मा का अध्ययन अध्यात्म नहीं है, अध्ययन पठन पाठन मन बुद्धि और चित्त शुद्धि के लिए है..."

यह बात गीता अध्याय 2 के श्लोक 41-44 से जुड़ती है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि:

"व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥"
(2.41)

अर्थ: निश्चयात्मक बुद्धि केवल एक लक्ष्य की ओर होती है — आत्मबोध की ओर। लेकिन जो लोग संसार में अनेक विषयों में उलझे रहते हैं, उनकी बुद्धि अस्थिर और बहुशाखी हो जाती है।

📌 यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि अध्ययन या ज्ञान तब तक केवल साधन है जब तक वह आत्मबोध में परिणत न हो।


🔹 आपका कथन:

"उस आत्म बोध को पाकर आत्म स्थित (द्वंद्व रहित, सदा अपनी मौज में) हो जाना आध्यात्म है।"

यह गीता के अध्याय 2, श्लोक 55 में प्रतिपादित "स्थितिप्रज्ञ" की स्थिति को दर्शाता है:

"प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥"
(2.55)

अर्थ: जब मनुष्य अपने मन में उत्पन्न होने वाली समस्त इच्छाओं को भोग कर आत्मा में ही संतुष्ट रहने लगता है, तब वह स्थितिप्रज्ञ कहलाता है।

📌 यही “आत्म स्थित” अवस्था है — जो आपने कहा, "सदा अपनी मौज में।"


🔹 "मन, बुद्धि, चित्त को कला साधना में लगाकर , उच्च जीवन मूल्यों पर अडिग रहते हुए आत्म बोध प्राप्त करना ही धर्म है।"

यह बात श्लोक 64 और 65 में आती है:

"रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥"
(2.64)

"प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते॥"
(2.65)

अर्थ: जो राग-द्वेष से मुक्त होकर विषयों का सेवन संयमित इन्द्रियों से करता है, उसे मन की शांति मिलती है। शांति से दुखों का नाश होता है और ऐसी प्रसन्नचित्त अवस्था में बुद्धि स्थिर होती है।

📌 यही साधना है – जब मन, बुद्धि, चित्त का संचालन कला, सेवा, और उच्च मूल्यों के साथ हो। यही 'धर्म' की क्रियाशीलता है।


सारांश:

आपके कथन का गीता के अनुसार निष्कर्ष:

  1. अध्ययन और साधना – मन, बुद्धि और चित्त को शुद्ध करने का साधन है, आत्मा का लक्ष्य नहीं।
  2. आत्मबोध – जब यह साधन पूर्ण होता है, तब आत्मा का अनुभव होता है, जो द्वंद्वातीत स्थिति है।
  3. स्थितिप्रज्ञ – वही आत्मस्थित पुरुष है जो इच्छाओं से परे, सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय में सम रहता है।
  4. धर्म – अपने स्वधर्म में रहते हुए, कल्याणकारी मूल्यों और सत्कर्मों के साथ आत्मबोध की ओर यात्रा ही सच्चा धर्म है।


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