Sunday, June 1, 2025

मुझसे मत पूछो मेरे इश्क में क्या रखा है, एक शोला है जो सीने में छुपा रखा है।

 "सताई हुई नारी की राष्ट्रभक्ति और ईश्वर भक्ति: पहले प्रेम की भूख तो मिटाओ!"


"सताई, प्रताड़ित, चोट खाई हुई महिला से राष्ट्रभक्ति और ईश्वरभक्ति की उम्मीद करना कैसा न्याय है?"
जब उसकी आँखों में नींद नहीं, पेट में अन्न नहीं, मन में शांति नहीं — तो वह राष्ट्रगान क्यों गाए? मंदिर क्यों जाए?


यह कैसी राष्ट्रभक्ति है?

भारत की करोड़ों महिलाएँ — खेतों में काम करने वाली मज़दूर महिलाएँ, शहरों की झुग्गियों में जीती घरेलू सहायिकाएँ, कस्बों की अध्यापिकाएँ, और घर की चारदीवारी में गुमनाम गृहिणियाँ — हर दिन प्रताड़ित होती हैं

कभी पति के हाथों,
कभी ससुराल के तानों से,
कभी सड़क पर घूरती आँखों से,
और अक्सर सत्ता की चुप्पी से।

फिर भी उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे “भारत माता की जय” कहें, मंदिर जाएँ, ‘सनातन धर्म’ की रक्षा करें, और हर चुनाव में ‘धर्म’ के नाम पर वोट दें।

पर क्या जिस स्त्री को रोज़ उसकी गरिमा से वंचित किया जाए, वह देश या ईश्वर से प्रेम कर सकती है?


ईश्वर भक्ति या मन की भूख?

ईश्वर-भक्ति तब होती है जब मन शांत हो, जब आत्मा में प्रेम हो।
परन्तु जब एक स्त्री —

  • हर रात आँसुओं के तकिए पर सोती है,
  • हर दिन काम के बाद तानों का भार ढोती है,
  • हर रिश्ते में केवल ‘कर्तव्य’ निभाती है,
    तो वह भक्ति नहीं, केवल संस्कारजनित गुलामी कर रही होती है।

धर्म में भक्ति तभी संभव है जब धर्म पहले उसका सम्मान करे।
वह मंदिर में तभी सच्चे मन से सिर झुकाएगी, जब घर में उसका सिर ऊँचा रखा जाएगा।


पहले प्रेम की भूख तो मिटाओ!

राष्ट्रभक्ति का सबसे बड़ा अपराध यह है कि उसने औरतों की पीड़ा को ‘त्याग’ कहकर महिमामंडित कर दिया।
उनकी भूख को ‘माँ का स्नेह’ कह दिया।
उनके आँसुओं को ‘भारत माता की महानता’ में घोल दिया।

पर आज की स्त्री 'माँ' नहीं बनना चाहती जब तक वह खुद बेटी की तरह सुनी न जाए।

वह कहती है:

“मुझसे मत कहो मंदिर जाओ,
जब घर की देहरी पर मेरे सपने दम तोड़ते हैं।
मुझसे मत कहो वंदे मातरम् कहो,
जब मेरी ही देह को मातृभूमि की तरह रौंदा जाता है।”


करुणा, दया, प्रेम — यही राष्ट्र धर्म है

किसी भी राष्ट्र का असली धर्म होता है — प्रेम देना, करुणा से देखना, न्याय करना
और यह तब शुरू होता है जब हम स्त्री को केवल ‘माता’, ‘देवी’, ‘अर्धांगिनी’ नहीं, बल्कि एक सम्पूर्ण व्यक्ति मानें — जिसे अपनी इच्छाएँ हों, अपना सम्मान हो, और अपने निर्णय लेने की आज़ादी हो।


नया राष्ट्रवाद: स्त्री से क्षमा मांगकर शुरू हो

हमें एक नए राष्ट्रवाद की जरूरत है — जो क्षमा से शुरू हो, करुणा से पले, और न्याय से बढ़े।

जहाँ कोई सत्ता, कोई धर्म, कोई पुरुष यह न कहे कि "स्त्रियाँ तो सहनशील होती हैं", बल्कि कहे:

“माफ करो माँ, हमने तुम्हारी करुणा का शोषण किया।
अब हम तुम्हें सुनेंगे — बिना टोके, बिना ताने, बिना ढोंग।”


नारी जब तक भूखी है प्रेम की,
राष्ट्र रहेगा अधूरा ईश्वर की कृपा से।

जब तक स्त्री को श्रद्धा नहीं,
देश को पूजा नहीं मिल सकती।


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