Thursday, May 22, 2025

राष्ट्र धर्म, भाषा, संस्कृति - राष्ट्रीय अवधारणा का जुमला

ब्लॉगर पोस्ट शीर्षक: "बिना मूल्यों के विकास नहीं, सिर्फ दिखावा होगा"

आज के दौर में जब चारों ओर शोर है—विकास का, परिवर्तन का, नए भारत का—तब एक मौलिक सवाल मन में उठता है: क्या हम वाकई आधुनिक बन रहे हैं, या सिर्फ चतुर?

"बिना किसी मूल्यों, सिद्धांतों को अपनाए, किसी से भी निपटना मुश्किल है।"
यह बात जितनी सरल लगती है, उतनी ही गहरी है। जीवन, समाज, राष्ट्र—हर स्तर पर अगर नैतिक मूल्य और सिद्धांत नहीं होंगे, तो अस्थायी सफलता के बावजूद दीर्घकालिक संतुलन असंभव है।

आज लोग गांधीगिरी का मज़ाक उड़ाते हैं, उसे पुराना मानते हैं। लेकिन क्या झूठ, भय, और नफरत से टिकाऊ नेतृत्व या समाज बन सकता है?

"गांधीगिरी नहीं चलेगी, तो क्या जुमलागिरी चलेगी !!"
यह एक कटाक्ष है—सिर्फ नारों से, मार्केटिंग से, इवेंट मैनेजमेंट से समाज नहीं चलता। नेता हो या नागरिक, जब तक सत्य, करुणा, और आत्मसंयम जैसे मूल्य नहीं अपनाए जाते, तब तक हम सिर्फ भीड़ बनते हैं, समाज नहीं।

यहाँ एक और ग़लतफ़हमी भी पनप रही है—कि राष्ट्र का आधार धर्म, संस्कृति या भाषा हो।
जबकि सच यह है कि राष्ट्र धर्म, संस्कृति या भाषा के आधार पर नहीं, संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर चलता है।
संविधान वह नींव है, जो विविधता में एकता को संभव बनाती है—न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व जैसे मूल्यों के ज़रिए।

समस्या सिर्फ नेताओं की नहीं है
हम सभी अपने जीवन में किस मूल्य के आधार पर निर्णय लेते हैं? क्या हम भी हर बार सुविधा के अनुसार अपने सिद्धांत बदल लेते हैं? यह आत्मचिंतन का विषय है।
समाज तभी बदलेगा जब व्यक्ति बदलेगा। व्यक्ति तभी बदलेगा जब वह भीतर से मजबूत होगा—मूल्यनिष्ठ होगा।

तो रास्ता क्या है?

  • गांधीगिरी को फिर से समझना और अपनाना
  • संवैधानिक मूल्यों को व्यवहार में लाना
  • जवाबदेही और पारदर्शिता को प्राथमिकता देना
  • युवाओं में विचार और विवेक की भावना जगाना
  • और सबसे ज़रूरी, खुद को ईमानदारी से जीना सिखाना

जुमले वक्ती होते हैं, मूल्य युगों तक चलते हैं।
अब फैसला हमें करना है—हमें इतिहास बनना है, या सिर्फ उसका तमाशबीन रहना है?


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