अबहूं चेत गंवार – जब राजनीति और परिवार दोनों चेतना मांगें
"अबहूं चेत गंवार" – यह चेतावनी केवल ग्रामीण या भोली जनता के लिए नहीं, बल्कि आज के शहरी, पढ़े-लिखे, और तथाकथित जागरूक नागरिक के लिए भी है, जो राजनीति और पारिवारिक जिम्मेदारी से मुंह मोड़कर केवल स्वार्थ की पूर्ति में लगा है।
भारत जैसे विविधताओं वाले देश में यह चेतना और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, जहां
- राजनीति में धर्म, जाति, क्षेत्रवाद और परिवारवाद
- और परिवारों में स्वार्थ, नियंत्रण की लालसा और संवादहीनता
सामूहिक विघटन का कारण बन चुके हैं।
भारतीय राजनीति – सत्तालोलुपता का खेल बनाम जनकल्याण
भारत में लोकतंत्र केवल चुनावी गणित तक सीमित होकर रह गया है।
– नेता काम से नहीं, जाति या धर्म से चुना जाता है।
– नीति का स्थान प्रोपेगंडा ने ले लिया है।
– और जनता अपने वोट को भावनात्मक हथियार की तरह इस्तेमाल कर, भविष्य से समझौता कर लेती है।
उदाहरण:
2024 के आम चुनाव में कई जगहों पर कैंडिडेट की योग्यता से ज़्यादा उसका धर्म, जाति या नेता से नज़दीकी मायने रखी गई। परिणामस्वरूप, ईमानदार और जमीनी कार्य करने वाले नेताओं को जनता ने खुद हरा दिया।
क्या यह प्रगति है?
यही कहानी घर की भी – परिवार का टूटता ताना-बाना
परिवार, जो भारतीय संस्कृति का आधार था, आज एक सामाजिक अनुबंध बनता जा रहा है।
– संवाद की जगह ताने,
– त्याग की जगह अधिकार,
– और सहयोग की जगह होड़ ने ले ली है।
पारिवारिक उदाहरण:
बड़े शहरों में कामकाजी दंपतियों के बीच निर्णय लेने में सामूहिकता कम होती जा रही है। बच्चों की परवरिश, बुज़ुर्गों का सम्मान, और एक-दूसरे की भावनाओं को सुनने की प्रक्रिया कमजोर पड़ रही है।
– भाई-भाई में संपत्ति विवाद,
– पति-पत्नी में ईगो टकराव,
– और पीढ़ियों में संवाद का अभाव,
पारिवारिक विघटन के कारण बन रहे हैं।
यानी, जैसे राजनीति नेतृत्व विहीन हो गई है, वैसे ही परिवार मार्गदर्शनविहीन होता जा रहा है।
क्या चाहिए हमें – राजनीति और परिवार दोनों में?
-
सत्य पर आधारित नेतृत्व – चाहे देश हो या घर
- ऐसा नेतृत्व जो लोकप्रिय नहीं, बल्कि लोक-हितैषी हो।
- जो तुरंत लाभ नहीं, दीर्घकालिक दृष्टि रखता हो।
-
प्रेम, करुणा और सहयोग का व्यवहार
- राजनीति में विपक्ष का सम्मान,
- परिवार में मतभेदों के बावजूद रिश्तों की गरिमा,
- यही सामाजिक स्थिरता की कुंजी है।
-
स्वार्थ पर अंकुश
- जब राजनीति में व्यक्तिगत लाभ से ऊपर राष्ट्रहित नहीं होगा,
- और परिवार में मैं से पहले हम होगा –
तब सही अर्थों में विकास होगा।
निष्कर्ष – चेतो, नहीं तो बिखर जाओगे
"अबहूं चेत गंवार" – अब भी समय है कि
- हम राजनीति में योग्य नेतृत्व को पहचाने, उसे समर्थन दें, और बिना जाति-धर्म के चश्मे के देश का भला सोचें।
- हम परिवारों में विवेकशील, सहनशील और संवादशील माहौल बनाएं, जिससे हर सदस्य का आत्मबल बना रहे।
क्योंकि राजनीति हो या परिवार –
जब नेतृत्व को रोका जाए, और स्वार्थ को बढ़ावा मिले,
तो टूटना तय है।
अब भी चेतो – क्योंकि जब चेतना लौटती है, तब व्यवस्था जन्म लेती है।
वरना अंधभक्ति, दंभ और पाखंड –
घर और देश, दोनों को खा जाते हैं।
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