Tuesday, April 29, 2025

उपासना और उपनिषद - पास बैठना, और आत्मसाक्षात्कार

उपासना वह भाव है, जहाँ मन ईश्वर से जुड़ता है।
ना मन्दिर, ना पूजा का शोर—केवल अंतरतम में सन्नाटा होता है।

उपनिषद वह अनुभव है,
जहाँ 'मैं' और 'वह' का भेद मिट जाता है।
कोई गुरु नहीं, कोई द्वार नहीं—
बस मौन ही वहाँ उत्तर देता है।

साधना से शुद्ध होता मन,
जैसे झील में थमता जल।
और उस शांति में जो झलकता है—
वही उपनिषद है, वही संबल।


जब हम आत्म-अनुभव की बात करते हैं, तो उपनिषद को केवल "गुरु से सुनना" तक सीमित करना उचित नहीं होता, खासकर जब लक्ष्य भीतर के ईश्वर का साक्षात्कार हो। आइए इस परिभाषा को संशोधित करते हैं—बिना "गुरु के पास बैठने" की पारंपरिक व्याख्या के।


1. उपासना (Upāsanā):

शब्दार्थ:
‘उप’ + ‘आसन’ = समीप बैठना।
अर्थ:
उपासना का तात्पर्य है — ईश्वर के समीप मन और भाव से जुड़ना, उसे स्मरण करना, प्रेमपूर्वक ध्यान लगाना।
यह एक साधनात्मक और भावनात्मक प्रक्रिया है जो मन को शुद्ध करती है और ईश्वर से संबंध स्थापित करती है।


2. उपनिषद (Upaniṣad):

शब्दार्थ:
अब इसे परंपरागत रूप से नहीं, बल्कि आधुनिक, अनुभूतिपरक दृष्टिकोण से समझते हैं।

अर्थ:
उपनिषद वह स्थिति है जब मनुष्य अपने भीतर निहित ईश्वर का साक्षात्कार करता है।
यह कोई बाहरी प्रक्रिया नहीं, बल्कि आत्म-अन्वेषण और आध्यात्मिक जागृति का परिणाम है।

एक वाक्य में:
उपनिषद वह अनुभव है जिसमें "मैं और ईश्वर अलग नहीं हैं" यह सच्चाई स्पष्ट हो जाती है।



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