त्व और स्व: हिंदुत्व के झूठे प्रचार बनाम स्वधर्म की खोज
सुनहु सुविज्ञों, ये अकथ कहानी,
अच्युत अखंड अक्षत की जबानी।
'त्व' का तमस, कट्टर प्रचार,
'स्व' का प्रकाश, सत्य विचार।
पांडित्य हिंदुत्व मोह मायाजाल,
वेद विरुद्ध स्वधर्म का संहार।
परिचय
आज के समय में "हिंदुत्व" शब्द केवल अध्यात्म या संस्कृति का द्योतक नहीं रह गया है। यह एक राजनीतिक और कट्टर विचारधारा का उपकरण बन चुका है, जो 'त्व' — अर्थात जड़ पहचान — के अंधकार में डूबा हुआ है। इसके विपरीत, भारतीय सनातन परंपरा सदैव 'स्व' — अर्थात आत्म-प्रकाश, स्वयं की खोज और सत्य की निष्कलुष जिज्ञासा — पर आधारित रही है।
इस लेख में हम त्व और स्व के बीच के मूलभूत अंतर को समझने का प्रयास करेंगे, और यह देखेंगे कि कैसे पांडित्य हिंदुत्व का झूठा प्रचार हमारे स्वधर्म और वेदों की मूल भावना के विरुद्ध है।
त्व (त्वत्व) — जड़ पहचान का अंधकार
संस्कृत में 'त्व' (tva) एक प्रत्यय है, जो किसी गुण को स्थायी पहचान में बदल देता है — जैसे बालक ➔ बालकत्व (boyhood)। यह प्रक्रिया अगर बाह्य पहचान (जाति, संप्रदाय, धर्म) पर आधारित हो जाए, तो व्यक्ति सत्य से भटककर केवल समूह पहचान और अंध समर्थन में फँस जाता है।
त्व का तमस:
- कट्टरता (Sectarianism)
- झूठा गौरव (False pride)
- बाहरी पंथ और परंपराओं पर अंधविश्वास
- संवादहीनता और विरोध का बीजारोपण
इसी 'त्व' की जड़ता से पनपती है वह विचारधारा जिसे आज कई लोग 'हिंदुत्व' के नाम से प्रचारित कर रहे हैं — जो धर्म नहीं, बल्कि एक राजनीतिक और मानसिक बंधन है।
स्व (स्वत्व) — आत्म प्रकाश की साधना
'स्व' (sva) का अर्थ है स्वयं, आत्मा, अपना स्वभाव। भारतीय दर्शन में 'स्व' का मार्ग ज्ञान, ध्यान और आत्म-अन्वेषण से होकर जाता है।
यह धर्म का मूल है — स्वधर्म, जो प्रत्येक प्राणी की निज प्रकृति और सत्य के प्रति उत्तरदायित्व है।
स्व का प्रकाश:
- स्वतंत्र चिन्तन (Independent inquiry)
- आत्म-साक्षात्कार (Self-realization)
- सत्य और करुणा का अविरल प्रवाह
- विविधता में एकता का भाव
स्व का अनुसरण करने वाला साधक बाहरी पहचान में नहीं उलझता, बल्कि भीतर की सत्य-चेतना को जागृत करता है। यही सनातन धर्म का वास्तविक संदेश है।
पांडित्य हिंदुत्व बनाम वेद मार्ग
वेदों ने हमें कट्टरता नहीं, बल्कि सत्य की खोज सिखाई है — "सत्यं वद, धर्मं चर"।
किन्तु आज का तथाकथित पांडित्य हिंदुत्व केवल दिखावटी ज्ञान, झूठे गौरव और बाहरी विधि-विधान के आडंबर में फँसा हुआ है।
यह वेद विरुद्ध है क्योंकि:
- यह प्रश्न करने की स्वतंत्रता का दमन करता है।
- यह भक्ति और साधना को पहचान और कट्टर नारेबाज़ी में बदल देता है।
- यह स्वधर्म की खोज को छोड़कर दूसरों पर वर्चस्व जमाने की होड़ सिखाता है।
वास्तविक धर्म वह है जो आत्मा के भीतर जागे, और व्यक्ति को सत्य, करुणा और सार्वभौमिक प्रेम की ओर ले जाए — न कि उसे दूसरे समुदायों के विरुद्ध विषाक्त करे।
निष्कर्ष
हमें यह समझने की आवश्यकता है कि
'त्व' का मार्ग पहचान आधारित कट्टरता का है — जबकि
'स्व' का मार्ग आत्म-बोध और सत्य-अन्वेषण का है।
यदि हम सनातन धर्म के मूल में लौटना चाहते हैं, तो हमें 'त्व' के अंधकार को त्यागकर 'स्व' के प्रकाश का वरण करना होगा।
धर्म का मर्म किसी बाहरी समूह की जय-पराजय नहीं, बल्कि अपने भीतर सत्य को पहचानना है।
जैसा उपनिषदों ने कहा — "आत्मानं विद्धि" — स्वयं को जानो।
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