गीतात्मक कविता
(शीर्षक: "नियति और नीयत का गीत")
जब खयाल आया नियति-नीयत का बंधन,
दिल से निकली आह की करुणा का स्पंदन।
ओ अभागे! जीवन यूँ ही बहा दिया,
सपनों का दीपक हवा में बुझा दिया।
नियति तो थी मौन खड़ी द्वारों पर,
नीयत थी रौशनी, बंद थी दीवारों पर।
तू खोजता रहा आकाश में उत्तर,
पर प्रश्न खड़े थे तेरे ही भीतर।
समय के संग बहती रही तेरी नाव,
बिना पतवार, बिना कोई दाव।
अब जब छाँह घिर आई शामों की,
तेरी धड़कन पूछती है सवालों की —
क्या सच में किस्मत ने मारा था?
या तूने खुद को ही हारा था?
फिर भी ओ पथिक! हार न मान,
शेष साँसों से रच एक नया गान।
जला नीयत की सूखी लकड़ियाँ,
उजाले से भर दे बाक़ी यात्राएँ।
नियति भी तुझसे मुस्कुरा कर कहेगी,
"ओ जीवन के साधक, देर सही पर तू जगा सही।"
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जब ख़याल आया कि नियति और नीयत दोनों का संबंध क्या है,
दिल से एक आह निकली, ओ अभागे, तूने जीवन व्यर्थ गंवाया।
नियति — जो पूर्व से लिखा था, अनदेखी रेखाओं में,
नीयत — जो हर क्षण बनती थी, मेरे विचारों और कर्मों में।
मैं दोनों के जाल में उलझा रहा, समझा नहीं समय की चाल,
हर क्षण को टालता रहा, हर अवसर को अनदेखा करता रहा बेहाल।
जब देखा पीछे मुड़कर, तो पाया —
न नियति ने कोई अन्याय किया, न नीयत ने मुझे ठगा था,
बल्कि मैं ही था जो अपने भय, अपने संशयों में डूबा रहा था।
न जी सका पूरे हृदय से, न लड़ सका पूरे विश्वास से,
नियत रास्ते खुले थे, पर मैं कदम बढ़ाने से डरता रहा।
तब एक करुण क्रंदन भीतर से फूटा —
"ओ अभागे, तूने जीवन व्यर्थ गंवाया,
जो करना था कर लेता, जो पाना था पा लेता,
न नियति दोषी थी, न नीयत अपूर्ण,
दोष बस तेरी निर्बलता का था, तेरे खोखले संकल्पों का था।"
अब क्या रह गया है?
कुछ टूटी हुई यादें, कुछ अधूरी साधनाएँ,
कुछ प्रश्न, जो रातों को जगाते हैं,
और एक चुप्पी, जो हर उत्तर को निगल जाती है।
फिर भी, शायद... अभी भी एक राह शेष है,
जहाँ नीयत को संबल बनाकर,
नियति के अंकन को फिर से पढ़ा जा सके,
और जो समय बचा है, उसमें कुछ नया लिखा जा सके।
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जब ख़याल आया कि नियति और नीयत दोनों का संबंध क्या है,
दिल से एक आह निकली —
ओ अभागे, तूने जीवन व्यर्थ गंवाया।
नियति — वह अदृश्य लिपि, जो जन्म लेते ही माथे पर लिख दी गई,
नीयत — वह लौ, जिसे हर क्षण स्वयं प्रज्वलित करना था।
पर तू तो सोता रहा गहरी निद्रा में,
अपनी इच्छाओं के बोझ से दबा, अपने भय के अंधकार में उलझा।
कभी किस्मत को कोसा, कभी वक्त को धिक्कारा,
पर न एक बार दर्पण में झाँक कर अपने भीतर झाँका।
तेरी नीयत, तेरी जिजीविषा, तेरी करुण पुकार —
सब चुपचाप इंतज़ार करते रहे उस पल का,
जब तू जागे, जब तू उठे, जब तू कहे —
"मैं हूँ, और मैं रचूँगा अपना आकाश।"
पर तू तो बहता रहा समय की धार में,
बिना पतवार, बिना दिशा,
कभी इच्छाओं के हाथों बिका, कभी निराशा के हाथों टूटा।
तेरे जीवन का हर क्षण एक अधूरी कथा बनता चला गया,
तेरी हर साँस एक अनसुनी प्रार्थना बनती चली गई।
अब जब बालों में चाँदी उग आई,
अब जब शाम उतरने लगी अस्त होते सूर्य की तरह,
तब सिहरते हुए पूछता है स्वयं से —
"क्या नियति ने ही सब लूटा था,
या मेरी ही नीयत ने मुझे धोखा दिया?"
ओ अभागे, तेरा शोक उचित है,
पर यह आह भी एक उत्तर है —
कि अभी भी कुछ साँसें शेष हैं,
अभी भी जीवन की आखिरी कोंपलें हरी हैं,
अभी भी तुझमें एक दीपक जल सकता है —
जो अंधेरे को नहीं,
स्वयं को चीरने के लिए जलेगा।
तो अब शोक नहीं, अब पश्चाताप नहीं —
जो समय बचा है, उसे प्रेम से, संकल्प से,
एक नई नीयत से जी ले।
शायद नियति भी तेरी प्रतीक्षा में है,
कि एक बार तू स्वयं से संधि कर ले।
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