जब हिमालय बर्फ से लिपटा था: दक्षिण एशिया पर हिमयुग का प्रभाव और सभ्यता का जन्म
प्रस्तावना
धरती का चक्र-काल बेहद व्यापक है — पर्वतों का निर्माण, ग्लेशियरों का प्रसार-संकुचन, नदियों का प्रवाह, और मनुष्यों का उत्पत्ति-विकास। आज जब हम कृषि-समाज, अन्न-संस्कृति और त्योहार-परंपराएँ देखते हैं, यह सोचना कठिन नहीं कि ये सब एक विशेष समय-विच्छेद के बाद संभव हुए — जब हिमयुग (Ice Age) का प्रभाव समाप्त हुआ और स्थिर जलवायु व समृद्धि का युग प्रारम्भ हुआ।
इस लेख में हम देखेंगे कि कैसे यह प्रक्रिया दक्षिण एशिया — विशेषतः भारत — में घटी, किस प्रकार अनाज-आधारित सभ्यता ने जन्म लिया, कैसे त्योहार-संस्कृति विकसित हुई, और क्या सचमुच “भूमि के नीचे लोक” या “अन्तरकालीन लोक” की शक्ल में सभ्यता रही होगी? साथ ही यह विचार करेंगे कि भविष्य में दूसरी लोक-संभवना क्या हो सकती है।
1. हिमयुग और हिमालय: भूगर्भीय तथा मानसूनी साक्ष्य
1.1 हिमयुग का संक्षिप्त परिचय
हिमयुग या ग्लेशियल-काल वह समय था जब पृथ्वी के उच्च अक्षांशों में विशाल हिम-चादरें थीं, समुद्र तल बहुत नीचे था, और जलवायु आमतौर पर ठंडी-शुष्क थी। इसके बाद मध्य-हिमयुग या इंटरग्लेशियल काल आया, जिसमें तापमान बढ़ा, वर्षा नियमित हुई, नदियों-झीलों ने विस्तार किया।
1.2 दक्षिण एशिया में हिमयुग-प्रभाव
भारत-पाकिस्तान-नेपाल क्षेत्र में, विशेषकर हिमालय की ऊँचाई-श्रृंखलाओं में ग्लेशियेशन के प्रमाण मिले हैं। उदाहरणतः, लाहुल-हिमाचल क्षेत्र में “कॉस्मोजेनिक रेडियोनूक्लाइड डेटिंग” द्वारा ग्लेशियल लैंडफार्म्स की आयु निर्धारित की गई है।
इन प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि हिमयुग-काल के प्रभाव ने हिमालयी भूदृश्य, नदीनालियों और मानसून-चक्र को प्रभावित किया। इसके विपरीत, मैदानों (उत्तर भारत, मध्य भारत, दक्षिण भारत) में बर्फ-आवरण नहीं था, पर वहाँ जलवायु ठंडी-शुष्क थी, मानसून कमजोर रहा और वनस्पति बदल गई थी।
1.3 मानसून-चक्र पर साक्ष्य
उदाहरण के लिए, अरब सागर के समुद्री कोर (foraminifer isotope रिकॉर्ड) में पाया गया है कि लगभग 4.2 ka BP पर मानसून में अचानक गिरावट आई थी, जो उपमहाद्वीप की मानव-सक्रियता व सभ्यता-विकास को प्रभावित करती थी।
निष्कर्ष: हिमयुग ने दक्षिण एशिया में प्रत्यक्ष रूप से बर्फ़ का आवरण नहीं सभी क्षेत्रों में फैलाया, पर उसने ठंडी-शुष्क जलवायु, कमजोर मानसून और सामाजिक-परिस्थितियों में परिवर्तन लाया — जिससे कृषि-उद्भव का वातावरण भी प्रभावित हुआ।
2. होलोशीन के आरंभ और कृषि-सभ्यता का उदय
2.1 होलोशीन युग और कृषि-संभावना
लगभग 11,700 वर्ष पहले (≈ 9700 BCE) जब हिमयुग समाप्त हुआ, होलोशीन युग आरम्भ हुआ। इस युग में तापमान बढ़ गया, समुद्र-स्तर ऊपर आया, नदियाँ और मैदान सक्रिय हुए, मानसून-वर्षा फिर से नियमित हुई — ये वही परिस्थितियाँ थीं जिनमें व्यवस्थित खेती संभव हुई।
भारत-पाकिस्तान की सीमा में स्थित Mehrgarh में गेहूँ/जौ की खेती का पुरातात्त्विक प्रमाण मिलता है, जो कि उत्तर-पश्चिम उपमहाद्वीप में कृषि-उद्भव का एक प्रमुख स्थल माना जाता है।
2.2 अनाज-उपज और भारतीय कृषि-संस्कृति
भारतीय उपमहाद्वीप में अनाज (जौ, गेहूँ, बाद में चावल) कृषि-परंपराओं की धुरी बनी। इस अनाज-उपज ने सिर्फ आर्थिक अर्थ नहीं दिया, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक अर्थ भी पाया।
“अन्नं ब्रह्म” — वैदिक ग्रंथों में यह अवधारणा मिलती है, जहाँ अन्न को ब्रह्म के समकक्ष माना गया।
तीसरी-दूसरी सहस्राब्दी BCE में गंगा-मैदानी क्षेत्रों में चावल-खेती का प्रसार हुआ। इस तरह कृषि-समाज ने स्थायी गाँव, भंडारण, ऋतु-परिवर्तन, श्रम-विभाजन और संपदा-सर्जना को जन्म दिया।
2.3 त्योहार-संस्कृति का आरंभ
जब अनाज-उपज सुनिश्चित हुई, तब उस उपज-भोग, कटाई-उत्सव, प्रथम-भोजन और भंडारण-सम्पन्नता को मनाने हेतु त्योहार विकसित हुए। उदाहरणतः:
- भारत में मकर संक्रांति, पोंगल, बैसाखी जैसे त्योहार चावल-कटनी व सूर्य-उत्सव से जुड़े हैं।
- वैदिक एवं बाद के ग्रंथों में कृषि-ऋतु, पशु-पूजा, अनाज-भंडारण एवं श्रम-सम्बंधित कर्मकांड का वर्णन मिलता है।
यह दिखाता है कि आज के भारतीय त्योहार-परंपराएँ सीधे उस कृषि-संवर्धन काल से जुड़ी हैं।
3. कथा-काल, रामायण-वर्णन एवं खान-पान-संस्कृति
3.1 रामायण में खान-पान-वर्णन
रामायण जैसे महाकाव्यों में भोज, अनाज-उपज, भोजन-वितरण, भोजन-कार्य तथा नगर-राजकीय भोजों का वर्णन मिलता है। यह संकेत करता है कि उस काल में कृषि-उपज, वितरण-व्यवस्था और सामाजिक-भोजन-संस्कृति मौजूद थी।
उदाहरणतः, वर्णित है कि राजा श्रीराम ने यज्ञ-बलि, अन्न-वितरण और भोज का आयोजन किया था।
3.2 “लोक”-विचार: क्या धरती की सतह-नीचे भी सभ्यता थी?
रामायण एवं अन्य पुराणों में पाताल, लोक, भूमिगत मार्ग आदि की अवधारणाएँ मिलती हैं। कुछ संस्करणों में वर्णित है कि हनुमान ने भूमिगत मार्ग से लंकापुरी पहुँचा (Hanumān’s Adventures Underground: Oxford Academic)।
वैज्ञानिक दृष्टि से, सम्पूर्ण मानव-सभ्यता भूमि के नीचे रही — इसके ठोस प्रमाण नहीं हैं। हालाँकि Cappadocia (Turkey) जैसे स्थानों में भूमिगत गढ़-शहर मिले हैं।
3.3 भूमिगत सभ्यता-विचार पर शोध
“हॉलो अर्थ” (Hollow Earth) या भूमिगत सभ्यता-विचार पुरातात्त्विक दृष्टि से मिथकीय हैं। वे अक्सर युद्ध या शरण स्थलों से जुड़े हैं, न कि पूर्ण कृषि-सभ्यता के प्रतीक।
अतः यह निष्कर्ष करना अधिक वैज्ञानिक होगा कि “धरती सतह के नीचे पूरी मानव-सभ्यता Ice Age में पली-फली थी” — वर्तमान में समर्थित नहीं है; यह अधिकतर मिथक-रूप में बना हुआ है।
3.4 भविष्य-लोक की संभावना
भविष्य में “दूसरी लोक” की संभावना दो दृष्टियों से देखी जा सकती है:
- तकनीकी-सभ्य मानव भूमिगत या समुद्र-तल के नीचे या अन्य ग्रहों पर जीवन-स्थल विकसित करे।
- पारंपरिक “लोक”-विचार प्रतीक हैं — जीवन-प्रक्रिया, मृत्यु-पश्चात्-जीवन और पुनर्जन्म के।
यदि हम वैज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो भूमिगत निवास संभव है — लेकिन वह पूरी कृषि-सभ्यता का पुनरावृत्ति नहीं बल्कि खास परिस्थितियों में विकसित आवास-मॉडल होगा।
4. क्या कृषि-आधारित सभ्यता अगले हिमयुग तक ही जीवित रहेगी?
4.1 वैज्ञानिक चक्र एवं मानवीय चुनौतियाँ
पृथ्वी के जलवायु-चक्र (Milankovitch cycles) यह संकेत करते हैं कि ग्लेशियल और इंटरग्लेशियल अवस्था एक-दूसरे में बदलती रहती है। यदि मानव-निर्मित जलवायु-परिवर्तन न होता, तो संभवतः एक नया हिमयुग आगमन में होता।
लेकिन आज मानव-प्रभावित ग्रीनहाउस गैसों ने इस चक्र को बाधित किया है — कुछ शोध बताते हैं कि यह अगला Ice Age दश-हज़ारों वर्ष तक विलंबित हो सकता है।
4.2 सभ्यता-टिकाऊपन और मानवीय विकल्प
कृषि-सभ्यता अब सिर्फ प्राकृतिक ऋतु-चक्र पर निर्भर नहीं रही — सिंचाई, आनुवंशिक सुधार, भू-तकनीक, सूखा-प्रतिरोध आदि विकल्प उपलब्ध हुए हैं।
इसलिए यह कहना कि “कृषि-सभ्यता अगले हिमयुग तक ही जीवित रहेगी” — अधूरा और सरल है। लेकिन एक बात सत्य है: यदि हम जलवायु-विनाश, मृदा-क्षरण, जल-संकट, खाद्य-क्षमता-घटावट को नियंत्रित नहीं कर पाए, तो कृषि-आधारित जीवन-मॉडल संकट में आ सकता है।
4.3 भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि
“ऋतं च सत्यं च अभिदधात्” — ऋग्वेद
अर्थात् नियम और सत्य ने व्यवस्था स्थापित की।
इस दृष्टि से, यदि मानव-समाज ऋत्-संतुलन से विचलित होगा, तो स्वयं नया पुनरुद्धार आएगा।
5. समापन एवं एकीकृत निष्कर्ष
इस विस्तृत लेख में हमने देखा:
- हिमयुग-काल ने दक्षिण एशिया की भूगर्भीय व मानसूनी व्यवस्था को प्रभावित किया।
- होलोशीन युग के आरंभ ने कृषि-समाज को जन्म दिया।
- भारतीय कृषि-संस्कृति वैदिक ग्रंथों, त्योहारों और सामाजिक प्रथाओं में गहराई से घुली है।
- रामायण-काल की कथा, भोजन-संस्कृति और “लोक”-विचार सामाजिक चेतना का हिस्सा रहे।
- भूमिगत सभ्यता-विचार वैज्ञानिक रूप से मिथक हैं, पर लोक-कल्पना में जीवित हैं।
- भविष्य में तकनीकी और सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से मानव-सभ्यता अनुकूलनशील रहेगी।
“अन्नं न निन्द्यात् — अन्नं ब्रह्म एव।”
यह केवल धार्मिक वाक्य नहीं, बल्कि सभ्यता का प्रस्ताव है: अन्न-उपज ने हमें स्थिरता, त्योहार-संस्कृति और जीवन-चक्र दिया।
हमारे लिए चुनौती यह है — भूगर्भीय, पर्यावरणीय, सामाजिक और तकनीकी चुनौतियों को समझना — ताकि अगली गंभीर जलवायु-परिवर्तन की अवधि में हमारा कृषि-आधारित समाज टिक सके।
स्रोत सूची
- Have any human societies ever lived underground? – LiveScience
- What Lies Beneath? Mysterious Underground Cities Around the World – ScienceNewsToday
- HOLLOW EARTH: Legends and Realities of Underground Cities – IRJMETS (2025)
- The Hollow Earth, Subterranean Civilizations, Agartha – Crystalinks
- Hanumān’s Adventures Underground: The Narrative Logic of a Rāmāyāṇa ‘Interpolation’ – Oxford Academic
- Hollow Earth – Wikipedia
- Atlantis, the Younger Dryas Cataclysm, and the Case for a Lost Ice Age Civilization – Medium
- Aliens and priests: The many myths of Cappadocia’s hidden world – TRT World (2024)
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