स्वप्न (सत्याग्रह, अहिंसा स्वतंत्रता संग्राम) झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से (असूलों की बात अब खत्म हो गई, जिधर देखो उधर झूठ मक्कारी, धोखा गद्दारी।)।
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🌺 कारवाँ गुज़र गया — सभ्यता देखते रहे
(गोपालदास नीरज की आत्मा को नमन करते हुए — नव रूपांतरण)
स्वप्न झरे सत्य से, मीत चुभे शूल से,
लुट गए विचार सभी, लोभ के उसूल से।
रामराज का था जो गीत, अब दिखा मज़ाक सा,
धर्म हुआ बाज़ार, कर्म हुआ नक़ाब सा।
और हम खड़े-खड़े, विवेक खो चुके सरे,
कारवाँ गुज़र गया, सभ्यता देखते रहे।
नीतियाँ बिखर गईं, भीड़ ने चलन बदला,
आदर्श जो थे कभी, अब लगा उपहास सा।
सत्य का दीप बुझा, झूठ का उजाला है,
हर किसी की जेब में नया इक जुगाड़ वाला है।
और हम डरे-डरे, लोक लाज में घिरे,
कारवाँ गुज़र गया, चरित्र देखते रहे।
गाँव जो थे गीत में, अब धूल में समा गए,
शहर जो बने महल, आत्मा खा गए।
संगीत जो था प्राण, अब शोर बन गया,
संवेदना का हार भी, व्यापार बन गया।
और हम जले-जले, स्वार्थ में पले-पले,
कारवाँ गुज़र गया, संस्कार देखते रहे।
संग्राम था जो कभी, स्वराज का निशान था,
अब वही जनगण मन, दलदल का बयान था।
नेता बने देवता, जनता बनी भीड़ है,
संविधान का अर्थ भी, दल के हिसाब की रीत है।
और हम झुके-झुके, प्रश्न में रुके-रुके,
कारवाँ गुज़र गया, अधिकार देखते रहे।
माँग भर चली थी जब, नई सदी की किरण,
विश्वगुरु का सपना, जल उठा हर नयन।
पर तभी विषाक्त धन, गाज बन के गिर गया,
सपनों का सिंदूर भी, लोभ में बिखर गया।
और हम अंधे-से, स्क्रीन में बंद से,
कारवाँ गुज़र गया, संस्कृति देखते रहे।
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🌿 अंतिम भाव –
अब भी समय है थोड़ा, राख में तलाश ले,
उस चिंगारी को जो भारत बना सके।
वो गीत फिर लिखें, जो मन में दीप जला सके,
वो सत्य फिर जिएं, जो मानव को बचा सके।
वरना हम यूँ ही, इतिहास में मिटे-मिटे,
कारवाँ गुज़र जाएगा, अवशेष देखते रहे।
Sunday, October 12, 2025
कारवाँ गुज़र गया — सभ्यता देखते रहे (गोपालदास नीरज की आत्मा को नमन करते हुए — नव रूपांतरण)
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