Saturday, September 27, 2025

जल-जंगल-ज़मीन: हिमालय की छाती में उठती आग

 


जल-जंगल-ज़मीन: हिमालय की छाती में उठती आग

"मणिपुर से लेकर लद्दाख तक हिमालय की छाती में आग लगी।
जो प्रकृति के लाड़ले शिवगण हैं, उनसे लल्लू राम के लाठीबाज भिड़े।"

प्रस्तावना

भारत की ऊंची पहाड़ियों और गहरी घाटियों में आज भी वह संघर्ष जारी है, जो सदियों से चला आ रहा है — जल, जंगल और ज़मीन को बचाने की लड़ाई। चाहे वह मणिपुर के कुकी-मीतेई टकराव हों, लद्दाख में बौद्ध-मुस्लिम आदिवासियों का आंदोलन, या हिमाचल-उत्तराखंड के किसान-ग्रामवासी पर्यावरण विनाश के खिलाफ खड़े हों — हर जगह मूल प्रश्न वही है:
क्या विकास के नाम पर प्राकृतिक सभ्यताओं और आदिवासी संस्कृतियों को कुचल दिया जाएगा?

सभ्यता बनाम संस्कृति

जिसे दिल्ली-मुंबई की सत्ता "विकास" कहती है, वही गांवों और घाटियों में विस्थापन, पलायन और बेघरपन के रूप में उतरता है।

  • जल विद्युत परियोजनाएं → पहाड़ काटे जा रहे हैं, नदियाँ बाँधी जा रही हैं।
  • खनन → ज़मीन खोदी जा रही है, जंगल उजाड़े जा रहे हैं।
  • सुरक्षा और सैन्यीकरण → लोगों को उनकी ही धरती पर शक की निगाह से देखा जा रहा है।

"हिमाचल पुत्री ये सब तमाशा देख रही,
शिव की तीसरी आंख खुलने की प्रतीक्षा कर रही।"

यह प्रतीक्षा महज़ धार्मिक प्रतीक नहीं है, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी है — अगर प्रकृति और उसके पुत्रों को लगातार दबाया गया, तो अग्नि और आपदा का विस्फोट होगा।

मिथक और यथार्थ का संगम

भारतीय मिथकों में भी यह संघर्ष बार-बार दर्ज हुआ है।

  • रामायण में रावण और शिवभक्तों का टकराव।
  • आगम कथाएँ — जहाँ राहु-केतु का छल और शिवगणों की आस्था आमने-सामने आती है।

"लल्लू राम और शिव गणों का ये महासंग्राम पहले भी कहीं सुना है,
रामायण आगम कथाओं में भी इसका जिक्र तो कई बार आया है।"

आज वही कथा नए रूप में लिखी जा रही है — सत्ता के "लल्लू राम" आदिवासियों और किसानों की जीविका छीनना चाहते हैं, और पहाड़ी "शिवगण" अपने जल-जंगल-ज़मीन के लिए अडिग खड़े हैं।

राहु-केतु का विकास-मॉडल

"एक साल और राहू विकास और सुरक्षा के नाम पर उपद्रव मचाएगा,
फिर अंत में हार मानकर शिवगणों, आदिवासियों की स्तुति केतु गाएगा।"

ज्योतिषीय प्रतीकों को देखें, तो राहु-केतु का चक्र दरअसल सत्ता और लोभ का प्रतीक है।

  • राहु: छल, लालच, डर और असुरक्षा का वातावरण।
  • केतु: अंततः मुक्ति, सच्चाई और परंपरा का पुनःस्थापन।

आज की राजनीति और कॉरपोरेट गठजोड़ भी राहु-केतु की तरह है — जो आम जनता को "विकास" और "सुरक्षा" के नाम पर लुभाते और डराते हैं।

पंडित-मुल्ला और सत्ता का मुजरा

"राहू केतु दो उपद्रवी, संसार को भय आतंक दिखा रहे,
पंडित मुल्ला उनकी ताल पर छमाछम नाच रहे।"

सवाल यह है कि धर्मगुरु और धार्मिक राजनीति किसके पक्ष में खड़े हैं?
कभी मंदिर, कभी मस्जिद — लेकिन आदिवासियों की रोज़ी-रोटी, किसानों की ज़मीन और पहाड़ों की नदियाँ इनमें कहीं नहीं हैं।

उपसंहार: अलख निरंजन का जयघोष

"अंत में लल्लू राम पछताएगा, और शिव जी की स्थापना करके शीश नवाएगा।
अलख निरंजन जै बम भोले, का जयघोष दुनिया में एक बार फिर गूंजेगा।"

इतिहास और मिथक दोनों यही कहते हैं कि अंततः जन और प्रकृति ही विजयी होंगे
सभ्यताओं की चकाचौंध आती-जाती रहती है, लेकिन पहाड़, नदियाँ और जंगल ही इस धरती की शाश्वत शक्ति हैं।

आज जब हिमालय की छाती में आग लगी है, यह केवल एक क्षेत्रीय संघर्ष नहीं है, बल्कि पूरी मानवता के सामने प्रश्न है —
क्या हम अपनी सभ्यता को प्रकृति के साथ संगति में गढ़ेंगे,
या फिर राहु-केतु की अंधी दौड़ में स्वयं को भस्म कर देंगे?


👉 यह लेख केवल पत्रकारिता नहीं, बल्कि सांस्कृतिक दस्तावेज़ है — एक ऐसी गाथा जो आदिवासियों, किसानों और पहाड़ों की आवाज़ को इतिहास के पन्नों पर दर्ज कर रही है।



No comments:

Post a Comment