मरोगे तो मरो—
पर प्रेम में नहीं, भ्रम में दीवाने होकर मरो।
हिंदुत्व नहीं, हिंदू होने का ढोंग उठाए, परवाने होकर मरो।
तर्क नहीं, नारों के पीछे भागते भागते थक कर मरो।
गर्व नहीं, गाली देकर देशभक्ति जताते जताते मरो।
लाठी खा के मरो या जूते चाट कर,
किसी रण की नहीं, टीवी डिबेट की जयकार में मरो।
सच्चाई की लौ तो बुझा दी तुमने,
अब WhatsApp यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर बनकर मरो।
हम देखेंगे तमाशा— तुम्हारे आत्ममुग्ध पतन का,
जहाँ न राम होंगे, न रावण— बस मूर्खता का जलूस होगा।
थाली-घंटा लिए नहीं, हम तर्क और करुणा से करेंगे दशहरा,
जहाँ अधर्म जलेगा, और विवेक का सूरज फिर निकलेगा।
क्योंकि तुम्हें नहीं मालूम —
धर्म केवल मंदिर में नहीं होता,
वो माँ के आँचल में, किसान की थकान में,
और न्याय की हर आवाज़ में होता है।
तो मरो— यदि मरना ही है, तो अपने झूठे अहंकार के साथ मरो।
क्योंकि इतिहास तमाशा नहीं देखता, वह सब कुछ लिखता है —
और जब समय पलटेगा, तो तेरी जंजीरों की आवाज़ें ही सबूत होंगी।
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