Thursday, June 19, 2025

विश्वगुरु भारत: आत्ममंथन का समय है

 


विश्वगुरु भारत: आत्ममंथन का समय है

"कहे कबीर सुनो भाई साधो,
पैदा तो हम भी जानवर की तरह ही हुए।
पर गुरु कृपा (पढ़ाई) से इंसान बने।"

जब कबीर यह कहते हैं, तो यह केवल एक व्यक्तिगत अनुभव नहीं, अपितु एक सामाजिक चेतावनी है। गुरु की कृपा — अर्थात् शिक्षा, विवेक और आत्मबोध — ही वह साधन है जो मानव को पशुता से मनुष्यता की ओर ले जाती है। परंतु आज "विश्वगुरु भारत" की घोषणा करने वाले, इस गुरु–तत्त्व को स्वयं ही भुला बैठे हैं।


1. गुरु कहाँ है? ज्ञान का स्रोत या एजेंडा?

कबीर के समय में भी कुछ पाखंडी "गोलमोल कर, सूअर कर, पंडित गधासे" जैसे गुरु हुआ करते थे — जिनका ज्ञान नहीं, केवल अहंकार ही बोलता था। आज स्थिति और भी भयावह है।
गुरु की परिभाषा वेदांत में स्पष्ट है:

"तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया, उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं, ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।"
(भगवद्गीता 4.34)

ज्ञानिन वह है जो तत्त्वदर्शी हो — जो ब्रह्म, जीव और जगत के स्वरूप को जानता हो।
पर आज के "गुरु" कौन हैं? टीवी डिबेट्स के चिल्ला-चिल्ला कर बोलने वाले प्रवक्ता? जुमलों के व्यापारी? धर्म के नाम पर भीड़ बढ़ाने वाले बाज़ारू बाबा?


2. वेद और उपनिषद का भारत कहाँ है?

बृहदारण्यक उपनिषद कहता है:

"अथ आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।"
(बृ.उ. 2.4.5)

आत्मा को जानो। सोचो। ध्यान करो।
परंतु आज का भारत आत्मा नहीं, "बाह्य प्रदर्शन" और "सूचना के शोर" में खो गया है।
ज्ञान का स्थान आज तथाकथित ‘विकास’ और ‘राष्ट्रीय गौरव’ की खोखली घोषणाओं ने ले लिया है — जिनमें न्याय, समता और विवेक का कोई स्थान नहीं।


3. न्याय और नीति का हनन:

मनुस्मृति कहती है:

"धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।"

पर जब धर्म (नीति, न्याय) की हत्या राज्य स्वयं करने लगे — तब क्या होगा?

  • शिक्षा का उद्देश्य नौकरी नहीं, चरित्र निर्माण था। आज वह कोचिंग सेंटर बन चुकी है।
  • न्यायालय न्याय नहीं, प्रतीक्षा और राजनीति बन चुका है।
  • प्रशासन लोकसेवक नहीं, शासन-सेवक हो चुका है।
  • धर्मगुरु सत्य के संरक्षक नहीं, धर्म की दुकानें चला रहे हैं।

4. भारत का ‘विश्वगुरु’ बनने का दावा – यथार्थ या भ्रम?

‘विश्वगुरु’ वह होता है जो दुनिया को दिशा दे, न कि उसे नकल करे।
वह जो अपने भीतर के राक्षसों (जातिवाद, भ्रष्टाचार, दिखावा, अज्ञान, स्त्रीविरोध) को हराकर जगत को प्रकाश दे।
लेकिन आज भारत किस मूल्य का निर्यातक बन रहा है?

  • सूचना नहीं, विवेक चाहिए।
  • आयुध नहीं, आयुर्वेद चाहिए।
  • मूल्य नहीं, मूल्यवत्ता (Values) चाहिए।

5. समाधान: दर्शन और संतवाणी की ओर लौटना

योगवासिष्ठ में कहा गया:

"चित्तस्य शुद्धये कर्म, न तु वस्तूपलाभाय।"
(कर्म का उद्देश्य चित्त की शुद्धि है, वस्तुओं की प्राप्ति नहीं।)

आज भारत को आवश्यकता है –

  • विवेकानंद की शिक्षा के आदर्शों की,
  • रामकृष्ण परमहंस की आत्मनिष्ठा की,
  • रविदास और कबीर की सामाजिक दृष्टि की,
  • और वेदांत के उस उदात्त विचार की जो कहता है –

"वसुधैव कुटुम्बकम्",
न कि "हम ही श्रेष्ठ, बाकी सब हेय हैं।"


निष्कर्ष:

भारत का भविष्य तभी उज्जवल होगा जब वह स्वयं को छल और भ्रम से मुक्त करेगा।
गुरु को पहचानना और स्वीकारना — चाहे वह व्यक्ति हो या विवेक — भारत को ‘विश्वगुरु’ नहीं, ‘विश्वचेतना’ बना सकता है।

कहे कबीर सुनो भाई साधो,
गुरु बिना ग्यान न उपजे, ग्यान बिना मोक्ष कहाँ।



No comments:

Post a Comment