Friday, May 9, 2025

रामराज्य की छाया में: एक थकी आत्मा की शांति की खोज



धड़कनों ने सुनी एक सदा पांव की,

और दिल पे लहराई आंचल की छांव सी।
ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत, कौन हो तुम बतलाओ।
सीता राम !

धूप थी जो कभी आशीषों की, अब धधकती चिता बनी,
अयोध्या की धूल में रचे-बसे सपने राख में सनी।
जहाँ राम ने हर प्राणी को अपनाया था बिना भेद,
वहाँ आज दीवारों में कैद हैं नाम, शक्लें, और भेष।

राजधर्म अब व्याख्यानों में है, जनता के जज़्बात भूख में ढले,
भजन के सुर बदल गए, अब नारों में घुलती हैं जले।
शब्दों के युद्ध में सच गुम है, और मंदिर-मस्जिद की सीमाएँ
हर साँझ को चीरती हैं — जैसे चित्त भी अब सीमित रहे।

सीता की तपस्या अब लोक कथा बन गई है,
राम की मर्यादा, जैसे व्यस्त सड़कों पर कहीं खो गई है।
न्याय अब ऊँघता है फाइलों में,
और धरती बिन मेघों के, किसान के सपनों-सी सूख गई है।

पर हर युग की थकान के बाद आता है एक मौन विराम,
जहाँ पीड़ा भी धीमे-धीमे बनती है मधुर ध्वनि का काम।
और वही थकी हुई आत्मा,
जो दशकों तक भटकी, रोई, और टूटी —
अब लौटती है अंत में उसी छांव में,
जहाँ राम फिर से प्रेम में बहे, और सीता फिर से पृथ्वी में लहे।

अब कोई प्रश्न नहीं, कोई युद्ध नहीं, न राजनीति का ताप है,
बस एक गहरी साँस है — और अनंत में विश्राम का स्वरूप।
अवध की मिट्टी ने सब कुछ सुना, सब कुछ सहा, और अब —
रामराज्य नहीं बस कल्पना है,
बल्कि भीतर की शांति में मिलती एक अंतिम शरण है।

जहाँ यह युग थमता है… और आत्मा को मिलती है शाश्वत शांति।



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