यह आपकी पंक्तियाँ —
"राह पकड़ी थी उसने पथरीली कंटीली,
जब सुख की बयार आए, तो लगे जैसे सपना।"
— एक अद्भुत प्रतीक हैं धर्मयुद्ध (righteous struggle) के उस आंतरिक पथ की, जो श्रीमद्भगवद्गीता में विस्तार से समझाया गया है।
विस्तारित कविता: "धर्मयुद्ध की पगडंडी"
राह पकड़ी थी उसने पथरीली कंटीली,
ना छांव थी, ना कोई साथी, बस नियति की सीली धूप।
हर मोड़ पर कांटे बिछे थे,
पर मन में थी अर्जुन-सी सच्ची खोज।
जब सुख की बयार आई,
तो वो लगा जैसे सपना।
क्योंकि जिसने दुःख में धर्म निभाया,
वो सुख को भी प्रसाद ही माने।
"सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥"
(गीता 2.38)
“Treat pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat alike, and then engage in battle. Thus you shall not incur sin.”
धर्मयुद्ध सिर्फ रणभूमि में नहीं,
हर दिन का जीवन एक कुरुक्षेत्र है।
जहां मोह, भय, और भ्रम के बाण चलते हैं,
और आत्मा को सत्य की ढाल बनानी पड़ती है।
वो जो तपता रहा, झुकता नहीं,
वो ही बनता है कर्म का वीर।
जो भागा नहीं संकट से,
उसके भीतर जागता है विष्णु का नाद।
"न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥"
(गीता 3.5)
“No one can remain without performing action even for a moment; everyone is compelled to act by the qualities born of nature.”
जीवन की कंटीली राहें ही
हमारे भीतरी अर्जुन को जगाती हैं।
कभी-कभी जब सुख आता है,
तो वह लगता है जैसे क्षणिक स्वप्न—माया का जाल।
पर जो उस राह पर अडिग रहा,
जिसने शांति को संघर्ष से पाया,
वो स्वयं परमात्मा के निकट होता है—
क्योंकि उसने स्वधर्म को अपनाया।
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥"
(गीता 3.35)
“Better is death in one’s own duty; the duty of another is fraught with fear.”
भावार्थ (Explanation):
-
पथरीली राह और कंटीली जमीन
यह प्रतीक हैं जीवन की कठिनाइयों, जिनमें व्यक्ति को अपने स्वधर्म (own inner calling) के अनुसार टिके रहना होता है। -
सुख की बयार सपना क्यों लगती है?
क्योंकि जब मनुष्य ने दुख को स्वीकार कर, कर्मपथ पर चलना सीख लिया हो, तब सुख भी उसे मोह नहीं करता। वह इसे ईश्वर की कृपा मानकर संतुलित रहता है — यही है समत्व योग (Gita 2.38). -
धर्मयुद्ध का आंतरिक अर्थ
गीता का युद्ध बाहरी नहीं, बल्कि भीतर के भ्रम, मोह, राग-द्वेष और स्वार्थ के विरुद्ध है। यह वही युद्ध है जो गांधी, विवेकानंद या एक साधारण साधक भी भीतर लड़ते हैं।
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