"क्या हुआ पनौती बहुत उदास !"
गुरुजी ने कही थी अहम का गला घोंटना, मैने अपनी आत्मा का ही ...!
यह पंक्ति बेहद मार्मिक और गूढ़ है। इसमें “अहम का गला घोंटना” और “आत्मा का गला घोंटना”—दोनों के बीच का अंतर गहरे दर्शन और जीवन के अनुभव से उपजा है। आइए इसे विस्तार देते हैं एक पूर्ण हिंदी कविता के रूप में, जिसमें पुराणों की कहानियों से भी प्रेरणा ली गई है:
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क्या हुआ पनौती, बहुत उदास?
गुरुजी ने कहा था—“अहम का गला घोंटना”,
पर मैंने तो अपनी आत्मा का ही गला घोंट दिया!
भूल गया कि अहं तो रावण में था,
पर उसकी आत्मा में अब भी शिव का वास था।
वह रावण जिसने वीणा पर शिव-तांडव रचा,
और अंततः अपने ही अभिमान में गिर पड़ा।
कभी कर्ण की तरह दान करता गया,
पर भीतर से सुना ही नहीं कि आत्मा रो रही है।
गुरु-दक्षिणा में अर्जुन को नहीं,
स्वयं को खो बैठा।
क्या यही थी विनम्रता? या आत्म-त्याग की भ्रांति?
जहाँ आत्मसम्मान को भी त्याग समझ लिया,
और आत्मा की चीखों को शांति मान लिया?
भीष्म की तरह शपथ ले ली—
पर जीवन भर बिस्तर पर तीरों का बिछौना रहा।
संघर्ष था धर्म का,
पर आत्मा बार-बार कहती रही— “अब लौट चलो।”
गुरुजी ने कहा था:
“अहम त्यागो, लेकिन आत्मा को जगाओ।
जो कर्म से जुड़ो, पर मूल्य मत छोड़ो।”
पर मैं तो कर्म में डूबता गया,
और आत्मा... धीरे-धीरे घुटती गई।
अब जब कोई कहता है—"थोड़ा रहम करो",
तो मैं हँस देता हूँ—
"रहम? मैंने तो खुद पर कभी किया ही नहीं..."
ना विश्राम, ना सम्मान, ना आत्म-संवाद।
बस... संसार की अपेक्षाओं का बोझ।
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अब समझ आया है—
अहम का गला घोंटना आत्मा को मुक्त करता है,
पर आत्मा का गला घोंटना,
हमें एक जीवित पनौती बना देता है—
जो चलता है, पर भीतर से मृत है।
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शिक्षा:
अहंकार को त्यागो, पर आत्मा की सुनो।
शांत रहो, पर मौन मत हो जाओ।
दुनिया को जीतो, पर खुद को न हारो।
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Tuesday, May 13, 2025
अहम का नाश या आत्मा का !
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