Title: भगवद्गीता, संघर्ष, और मृगतृष्णा: धर्मयुद्ध या भ्रमयुद्ध?
"अकर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
— श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 47
यह श्लोक अर्जुन के जीवन संघर्ष का समाधान है या एक गूढ़ द्वंद्व का आरंभ?
आशय यह है कि “तेरा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं।”
लेकिन आज यह शिक्षाप्रद सिद्धांत दो ध्रुवों में बंट गया है — एक ओर आध्यात्मिक संन्यास, दूसरी ओर राजनीतिक अंधभक्ति।
संन्यास बनाम संघर्ष
कभी कोई कहता है —
“हे अर्जुन, छोड़ो ये सब झमेले, जीवन एक माया है। फल की चिंता मत करो। संन्यास लो, ध्यान लगाओ। दुनिया का संघर्ष निरर्थक है।”
और दूसरी ओर, वही अर्जुन कभी कहता है —
“POK लेकर रहेंगे!”
“सभी मुस्लिम देश छोड़कर चले जाएं!”
“यह धर्मयुद्ध है, Clash of Civilizations है।”
यह कैसी विडंबना है?
जहां एक ओर ‘फल की चिंता मत करो’ का उपदेश है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक फल के लिए युद्धोन्माद!
गर्व या भ्रम?
“ये सब पंडितों, हिंदुत्ववादियों जैसी बात कहाँ से सीखी?”
क्या यह वही मृगतृष्णा नहीं जिसमें अर्जुन पहले भटक रहे थे?
आज कर्म की जगह क्रोध,
धर्मयुद्ध की जगह घृणा युद्ध,
और न्याय की जगह प्रतिशोध ने ले ली है।
“किसलिए इतना संघर्ष?”
- आत्मोत्थान के लिए, या
- दूसरों को नीचा दिखाने के लिए?
क्या हमने गीता को समझा, या केवल राजनीतिक भाषण बना दिया?
Two Nations Theory और उसका मानसिक असर
Jinnah ने "Two Nations Theory" दी थी — पर क्या हम आज भी उसी सिद्धांत के मानसिक गुलाम बन गए हैं?
जब हम कहते हैं,
“हिंदू बनाम मुसलमान,”
“हमारी जमीन, उनका देश,”
“ये हमारी संस्कृति, वो विदेशी,”
तो क्या यह संघर्ष अर्जुन का है — या धृतराष्ट्र और शकुनी का?
कहां है संतुलन?
भगवद्गीता का सार है —
कर्तव्य करो, पर आसक्ति से नहीं। संघर्ष करो, पर विवेक से।
आज आवश्यकता है:
- आध्यात्मिक मोहभंग नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण संघर्ष।
- धार्मिक श्रेष्ठता नहीं, बल्कि मानवीय समानता।
- राष्ट्रवाद नहीं, बल्कि नवचेतन मानववाद।
निष्कर्ष:
यदि गीता को हथियार बना दिया गया,
यदि संन्यास को पलायन बना दिया गया,
और यदि संघर्ष को घृणा बना दिया गया —
तो न अर्जुन बचेगा, न युद्ध का धर्म।
समझो, कौन-सा युद्ध तुम्हारा है —
आत्मा का, या सत्ता का?
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