Sunday, May 25, 2025

भारत बनाम संकटों का महासमर

शीर्षक:

भारत बनाम संकटों का महासमर: महामारी, युद्ध, जलवायु आपदा और अरबपति राक्षसों के बीच मीडिया की अग्निपरीक्षा

लेखक: [आपका नाम] | जन-सरोकार | Substack (हिंदी)


"हम केवल जीने की नहीं, ज़िंदा रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं — और यह लड़ाई अब केवल बाहरी ताक़तों से नहीं है, बल्कि भीतर से भी है।"

21वीं सदी का भारत एक साथ कई मोर्चों पर जूझ रहा है —
महामारी से लेकर जलवायु तबाही तक, वैश्विक युद्धों से लेकर आर्थिक गुलामी तक, और अब एक ऐसा नया वर्ग हमारे संसाधनों और भविष्य को निगल रहा है, जिन्हें हम ‘उद्यमी’ कहते थे — लेकिन जो आज अधिपति राक्षस बन चुके हैं।

और इस सबके बीच भारतीय पत्रकारिता क्या कर रही है?


संकटों की श्रृंखला: क्या भारत तैयार है?

1. महामारी और स्वास्थ्य व्यवस्था:
COVID-19 ने भारत की स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोल दी। ग्रामीण भारत में ऑक्सीजन नहीं थी, शहरों में दवाइयाँ ब्लैक में बिकीं। तीसरी और चौथी लहर की आशंकाएं फिर से सताने लगी हैं, और कोई स्थायी स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर अभी तक खड़ा नहीं हो सका।

2. जलवायु संकट:
बंगाल और महाराष्ट्र में बाढ़, उत्तराखंड में भूस्खलन, झारखंड और छत्तीसगढ़ में सूखा। भारत दुनिया के उन टॉप 10 देशों में है जो जलवायु परिवर्तन से सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे। लेकिन क्या हमारी आपदा प्रबंधन व्यवस्था पर्याप्त है? NDMA के पास संसाधन सीमित हैं और राज्यों के पास रणनीति का अभाव है।

3. आर्थिक असमानता और अरबपतियों का प्रभुत्व:
जब 80 करोड़ लोग फ्री राशन पर निर्भर हैं, उसी समय भारत के कुछ उद्योगपति विदेशों में निजी जेट से लॉबी कर रहे हैं। Oxfam की रिपोर्ट बताती है कि भारत की कुल संपत्ति का 77% केवल 1% लोगों के पास है। क्या यह लोकतंत्र है या नव-सामंतवाद?

4. भू-राजनीतिक दबाव:
चीन की सीमा पर तनातनी, पश्चिमी एशिया की अशांति, और अमेरिका-रूस संघर्ष के बीच भारत को वैश्विक गुटबाजी से संतुलन साधना पड़ रहा है। हमारी कूटनीति चतुर हो सकती है, लेकिन क्या हमारी आंतरिक स्थिरता इतनी मज़बूत है?


भारतीय पत्रकारिता: सूचना या मनोरंजन?

आज जब देश को सजग, तथ्यपूर्ण और निर्भीक पत्रकारिता की ज़रूरत है, तब मीडिया का बड़ा हिस्सा TRP के नशे में डूबा है।

  • सरकार की आलोचना “राष्ट्रद्रोह” कहलाने लगी है।
  • कॉर्पोरेट फंडिंग ने संपादकीय स्वतंत्रता को बंधक बना दिया है।
  • ग्रामीण संकट, जलवायु विनाश, स्वास्थ्य प्रणाली की खामियाँ — ये खबरें प्राइम टाइम से गायब हैं।

स्वतंत्र पत्रकार, जैसे रवीश कुमार, परंजॉय गुहा ठाकुर्ता, और अरुणा कश्यप, इन मुद्दों को उठाते हैं, लेकिन वे संस्थागत सहयोग से वंचित हैं।


क्या समाधान है?

1. आपदा प्रबंधन को सिर्फ़ फाइलों से बाहर लाना होगा।
NDMA और राज्य आपदा प्राधिकरण को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त कर स्वायत्त और संसाधन-संपन्न बनाना चाहिए।

2. जन-स्वास्थ्य को चुनावी मुद्दा बनाया जाए।
जब तक स्वास्थ्य, पर्यावरण और शिक्षा चुनावी मुद्दे नहीं बनेंगे, तब तक सिस्टम इन पर ध्यान नहीं देगा।

3. पत्रकारिता को बचाना होगा।
हमें स्थानीय और स्वतंत्र पत्रकारों को सपोर्ट करने के लिए सब्स्क्रिप्शन आधारित मीडिया को बढ़ावा देना होगा — जैसे The Wire, Scroll, Article 14, Gaon Connection आदि।

4. नागरिक जागरूकता को सशक्त करना होगा।
हर नागरिक को यह समझना होगा कि इन संकटों से लड़ाई केवल सरकार या NGO की नहीं — यह हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी है।


निष्कर्ष: संकटों के बीच उम्मीद की लौ

भारत 1.4 अरब लोगों का देश है — यहां की चुनौतियाँ भी विशाल हैं और संभावनाएं भी। लेकिन अगर हम इन संकटों को केवल “न्यूज़” बनाकर भूलते रहेंगे, तो एक दिन ये हमारा भविष्य निगल जाएंगे।

आज ज़रूरत है सतर्क पत्रकारिता, जागरूक नागरिकता और मानवीय नेतृत्व की।
क्योंकि यह सवाल अब केवल “विकास” का नहीं है — यह अस्तित्व का है।


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