भारतीय बौद्धिक दासता: आत्मबोध और गुरुडम की आलोचना
भारत एक समय सत्य की खोज का केंद्र था — जहाँ ऋषि-मुनियों ने आत्मानुभूति, ब्रह्मचिंतन, और गहन शांति के माध्यम से ईश्वर की तलाश की। यह वह भूमि थी जहाँ "नेति नेति" (यह नहीं, वह नहीं) कहकर हर अंतिम सत्य पर सवाल उठाया जाता था। परंतु समय के साथ यह भूमि धीरे-धीरे बौद्धिक दासता और अंध श्रद्धा की शिकार बन गई — जिसका एक बड़ा कारण था गुरु परंपरा का विकृत रूप, जिसे हम आज "गुरुडम" के नाम से जानते हैं।
❖ बौद्धिक दासता: जब चिंतन बंद हो गया
बौद्धिक दासता का अर्थ है — स्वतंत्र विचार, अनुभव और तर्कशक्ति का परित्याग कर देना। यह तभी होता है जब किसी व्यक्ति, परंपरा, या ग्रंथ को अंतिम सत्य मान लिया जाए और उस पर प्रश्न करना अधर्म या पाप माना जाए।
भारत में यह स्थिति तब पैदा हुई जब —
- शास्त्रों को अक्षरशः सत्य माना गया,
- गुरु को ईश्वर का अवतार कहकर पूज्य बना दिया गया,
- और शिष्य से उसकी जिज्ञासा छीन ली गई।
❖ बुद्ध का विद्रोह: गुरुओं के विरुद्ध आत्मज्ञान की क्रांति
बुद्ध ने इस बौद्धिक दासता का सटीक विरोध किया। उनका "अप्प दीपो भव" — अपने दीपक स्वयं बनो — गुरु परंपरा के विरुद्ध एक स्पष्ट घोषणा थी। उन्होंने ब्राह्मणों की सत्ता, वेदों की अक्षुण्णता, और यज्ञों की अनिवार्यता पर प्रश्न उठाया।
उनका मार्ग था — ध्यान, आत्मावलोकन और तर्क।
उनके लिए कोई गुरु नहीं था, कोई मध्यस्थ नहीं था — केवल अनुभव।
❖ जब गुरु परंपरा "गुरुडम" में बदल गई
भारत की गुरु परंपरा मूलतः एक मार्गदर्शक व्यवस्था थी — जहाँ गुरु शिष्य को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करता था। परंतु मध्यकाल आते-आते यह परंपरा संस्थागत सत्ता बन गई:
- गुरु देव बन गए — शिष्य के विवेक पर नियंत्रण रखने वाले।
- मठ और आश्रम बन गए — सत्ता और धन के केंद्र।
- गुरु वाणी बन गई — अंतिम आदेश, जिस पर प्रश्न नहीं किया जा सकता।
इस "गुरुडम" ने प्रश्न करने की परंपरा को नष्ट कर दिया।
‘जिज्ञासा’ जो कभी भारत की आत्मा थी — अब ‘श्रद्धा’ बन गई, बिना विवेक की।
❖ तुलसीदास और आत्मसाक्षात्कार
"सो जानहि जेहि देहु जनाई, जानत तुम्हहि तुम्हीं हो जाई।"
— रामचरितमानस
इस पंक्ति में तुलसीदास कहते हैं — परम सत्य केवल अनुभव के द्वारा जाना जा सकता है। जानना स्वयं ईश्वरमय हो जाना है। यह दृष्टि आत्मबोध की है, न कि बाह्य गुरु-पूजा की।
❖ “गुरु बिन होत न ज्ञान”: पर अब किस गुरु की बात हो रही है?
"गुरु बिन होई न ज्ञान" — यह एक सत्य वाक्य है, पर यह "अंतःस्थ गुरु" की बात करता है — जो हमारे भीतर स्थित बुद्धि और विवेक है।
जब इस कथन को गुरु = संस्था, व्यक्ति, या सम्प्रदाय के रूप में प्रचारित किया गया, तब यह आत्मबोध की राह में सबसे बड़ी बाधा बन गया।
कबीर ने स्वयं कहा:
"सतगुरु मिला तो डर काहे का,
अंतर बसे तो फिकर काहे का।"
सच्चा गुरु वह है जो भीतर बैठता है, बाहर नहीं खड़ा रहता।
❖ गुरुडम के प्रभाव: आधुनिक भारत में भी जारी है बौद्धिक दासता
आज भी हम देखते हैं:
- अंधभक्ति वाले संप्रदाय,
- करोड़ों के साम्राज्य खड़े करने वाले स्वयंभू बाबा,
- और लाखों शिष्यों की बुद्धि को नियंत्रित करने वाले गुरु मार्केटिंग मॉडल।
इन सबने भारतीय मानस को स्वतंत्र सोच से दूर कर दिया है।
लोग सत्य की तलाश नहीं करते, सत्य बताने वाले की तलाश करते हैं।
❖ निष्कर्ष: आत्मसाक्षात्कार ही मुक्ति है
बौद्धिक दासता — चाहे वह राजनीतिक हो, धार्मिक हो या गुरुडम की हो — एक ही काम करती है:
आपकी चेतना को नियंत्रित कर देती है।
भारत की मुक्ति तभी संभव है जब:
- हम गुरु के नाम पर चल रही सत्ता की राजनीति को पहचानें,
- आत्मानुभव को प्राथमिकता दें, और
- फिर से सवाल पूछना शुरू करें।
बुद्ध की परंपरा हो या वेदांत की — अंतिम मुक्ति किसी की पूजा से नहीं,
बल्कि स्वानुभव से होती है।
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