Wednesday, May 14, 2025

सहिष्णुता से सत्तावाद तक: भारत में पारसी आगमन और क्षेत्रीय शक्ति संरचनाओं का बदलता स्वरूप

 शीर्षक: सहिष्णुता से सत्तावाद तक: भारत में पारसी आगमन और क्षेत्रीय शक्ति संरचनाओं का बदलता स्वरूप

भूमिका
सातवीं से दसवीं शताब्दी के बीच पारसी (ज़रथुश्त्री) समुदाय, अरब आक्रमणों से बचने के लिए भारत आए। उन्होंने गुजरात के तटीय क्षेत्रों में शरण ली और स्थानीय समाज में धीरे-धीरे घुल-मिल गए। लेकिन इतिहास केवल आगमन और मेलजोल की कथा नहीं है—यह सत्ता, पहचान और सांस्कृतिक वर्चस्व की जटिल प्रक्रिया भी है।

इस लेख में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि कैसे पारसी समुदाय और बाद में मराठा सत्ता केंद्रों—विशेष रूप से चित्पावन ब्राह्मणों और पेशवाओं—ने मुग़लकाल के उत्तरार्ध में धार्मिक-सांस्कृतिक कट्टरता को बढ़ावा दिया, और किस प्रकार यह प्रवृत्ति औपनिवेशिक दौर में और भी मुखर हुई।


1. प्रारंभिक पारसी समुदाय: सह-अस्तित्व का आदर्श

प्रारंभिक पारसी प्रवासी अपने साथ ज़रथुश्त्री धार्मिक परंपराएं लाए लेकिन उन्होंने स्थानीय हिन्दू समाज के साथ घुलने-मिलने की नीति अपनाई।
“क़िस्सा-ए-संजान” जैसे ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि उन्होंने गुजरात के राजा के सामने वचन दिया कि वे स्थानीय संस्कृति का सम्मान करेंगे, भाषा और पोशाक अपनाएंगे।


2. मुग़लकाल में महाराष्ट्र और गुजरात की राजनीति

मुग़ल शासन के दौरान गुजरात और महाराष्ट्र में ब्राह्मणों, विशेषकर चित्पावन ब्राह्मणों का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ने लगा।
18वीं शताब्दी में पेशवा बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मराठा साम्राज्य उत्तरी भारत तक फैल गया। पेशवाओं ने ब्राह्मण नेतृत्व को सुदृढ़ किया, और धार्मिक-सामाजिक स्तर पर कठोरता लाई।

संदर्भ: Stewart Gordon, The Marathas 1600–1818, Cambridge University Press

चित्पावन ब्राह्मणों के उदय के साथ सामाजिक पदानुक्रम कड़ा हो गया। पेशवाकालीन महाराष्ट्र में शूद्रों और दलितों पर धार्मिक व सामाजिक प्रतिबंध बढ़े। धार्मिक समावेशिता के स्थान पर 'स्मृति' पर आधारित वर्णाश्रम धर्म को बल मिला।


3. पारसियों की औपनिवेशिक सत्ता के साथ निकटता

19वीं शताब्दी तक पारसी समुदाय भारत में आधुनिकता और शिक्षा के अग्रदूत बन चुके थे। बॉम्बे (मुंबई) में उनका प्रभाव इतना बढ़ा कि वे ब्रिटिश सत्ता के महत्वपूर्ण सहयोगी बन गए।

हालाँकि अधिकांश पारसी उदारवादी रहे, लेकिन कुछ धड़े सामाजिक संरचनाओं को बनाए रखने में हिन्दू उच्च जातियों के साथ खड़े रहे। इस गठजोड़ ने सामाजिक सुधार आंदोलनों के मार्ग में अड़चनें भी खड़ी कीं।

संदर्भ: Jesse Palsetia, The Parsis of India: Preservation of Identity in Bombay City, Brill Academic


4. कट्टरता और सामाजिक असमानता: ऐतिहासिक भूमिका की आलोचना

पेशवाओं के दौर में मंदिरों में अछूतों का प्रवेश निषिद्ध हो गया। नारायण गुरु और फुले जैसे सुधारकों को महाराष्ट्र में इसी कट्टर व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा।

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि जिस सहिष्णुता से पारसी भारत आए थे, वही सहिष्णुता बाद में स्थानीय सत्ता संरचनाओं—पेशवाओं और चित्पावन ब्राह्मणों—में कट्टरता में बदल गई।


निष्कर्ष

इतिहास केवल सांस्कृतिक मिलन की गाथा नहीं है, बल्कि शक्ति, वर्चस्व और पहचान की भी कथा है।
जहाँ प्रारंभिक पारसी आगमन सहिष्णुता और सामंजस्य का प्रतीक था, वहीं कालांतर में क्षेत्रीय सत्ता केंद्रों ने धार्मिक और सामाजिक कठोरता को बढ़ावा दिया। यह परिवर्तन केवल सत्ता की भूख से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक असुरक्षा और औपनिवेशिक गठजोड़ों से भी प्रेरित था।

इस ऐतिहासिक विश्लेषण से हमें यह समझना चाहिए कि सहिष्णुता केवल मूल्य नहीं, बल्कि निरंतर अभ्यास का विषय है—जो सत्ता में आने पर भी जीवित रहना चाहिए।


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