Saturday, May 10, 2025

देखा एक ख्वाब .....

"देखा एक ख़्वाब..."

देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले हुए,
दूर तक निगाह में हैं शोले भड़के हुए।
आज़ादी की साँस में जो रंग भरे गए,
अब धुआँ बन के गगन में हैं बिखरे हुए।

गांधी के स्पर्श में जो सत्य की लौ थी,
नेहरू के शब्दों में जो विज्ञान की चाह थी।
अम्बेडकर के स्वप्न में जो न्याय की धार थी,
सरदार की हिम्मत में जो एकता की राह थी —
सब लहरों की तरह किनारों पे आके ठहर गए,
भीड़ में, नारों में, अब सिर्फ़ झुनझुने रह गए।

कभी हर गाँव में उजाले का वादा था,
हर बच्चा किताब से मिलने को ज़िंदा था।
अब भूख की रेखा से नीचे हैं अरमान,
और खेतों की मिट्टी में भी जलता है किसान।

धर्म, जो बुनता था इंसान को,
अब पहचान बना है दीवारों का।
जात, जो मिटनी थी संविधान से,
अब लौट आई है नए बाज़ारों का।

ये वही ख्वाब है जो संविधान ने पढ़ा था,
जिसे हर भाषा ने अपनाया, हर दिल ने गाया था।
अब वो ख्वाब दरक रहा है टीवी की बहसों में,
और सियासत के मंचों में सब कुछ बिकता नज़र आया था।

पर ख्वाब कभी मरते नहीं — वो पलटते हैं,
तपते हुए समय में भी कमल-से खिलते हैं।
कहीं न कहीं एक बच्चा आज भी सवाल कर रहा है,
एक किसान फिर उम्मीद बो रहा है,
एक स्त्री अब भी संविधान पढ़ रही है —
ये इशारे हैं उस सुबह के, जो फिर लौटने वाली है।



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