अब दीनदयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ।।
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ।।
भेद बुद्धि, वैमनस्य conflict और हिंसा को जन्म देने वाली है। अपने को विलक्षण (ग्यानी , योगी, भक्त, गुरु) और दूसरों से अलग मान लेना दुख को सुख मान लेने के समान है, अर्थात जब ये भ्रम जाता है तो बहुत पीड़ा होती है। और नहीं जाता तो दुख में ही जीवन कटता है, क्योंकि आत्मानंद पाया ही नहीं।
यह सुंदर कविता अद्वैत और करुणा की भावना में डूबी हुई है। आइए इसे उसी भाव में आगे बढ़ाते हैं:
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अब दीनदयाल दया करिऐ।
मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ।।
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ।
दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ।।
मम पन निरालंब नहि कोई।
सब में तू, सब तू ही होई।।
जैसे तरंग में सागर लहरै।
तैसे जीव ब्रह्म में बहरै।।
मिथ्या अभिमान मोहि अँधियारा।
देखत सब को जानत न्यारा।।
"मैं" और "तू" की रेखा मिटे।
तबही हृदय आत्मारस पिए।।
जाग प्रबोध भयो जब भीतर।
दृग खुले प्रेम के मृग नयन समाना।।
जग माया का खेल बुझाना।
सत्य स्वरूप में लय हो जाना।।
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