Friday, April 25, 2025

ग़ज़ल क्यों रूह को छूती है! क्योंकि वो अंतःकरण की गहराइयों, ब्रह्मलोक से निकली है।

हिज्र (जुदाई का दर्द), कलमा (इस्लामी प्रतीक), वेद (हिंदू धर्म का आधार), कुरान (इस्लाम का पवित्र ग्रंथ) — सब कुछ एक ही ग़ज़ल में समा गया, और वह भी ग़ालिब की कलम से।

"हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी..." – एक ग़ज़ल नहीं, इश्क़ का धर्मग्रंथ है।
इस एक ग़ज़ल में ग़ालिब ने वो सब कह दिया जो वेद, कुरान, और कलमा में बंटा पड़ा था।

यहाँ इश्क़ हिज्र में ईश्वर बनता है,
और सनम — कभी काफ़िर, कभी खुदा।

कभी काबा की ओट में अपने ही सनम की तलाश है,
तो कहीं इश्क़ की तलब में मौत भी रूह को सुकून देती है।

यह ग़ज़ल बताती है कि...

  • हिज्र सिर्फ मोहब्बत की सजा नहीं, इबादत की इन्तिहा है।
  • कलमा सिर्फ अल्लाह की गवाही नहीं, आशिक़ की आखिरी सांस है।
  • वेद सिर्फ मंत्र नहीं, उस तड़प का शोर है जो हर आत्मा में गूंजती है।
  • कुरान सिर्फ किताब नहीं, इश्क़ की चुप दुआ है।

ग़ालिब ने मोहब्बत को मज़हब से ऊपर खड़ा कर दिया।
कह दिया —
"मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का..."

तो फिर ये ग़ज़ल नहीं,
इश्क़ का यूनिवर्सल धर्म है।


ग़ज़ल:

1.
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।

अर्थ:
मेरी ख्वाहिशें इतनी ज़्यादा थीं कि हर ख्वाहिश को पूरा करने में जान ही निकल जाए। मैंने बहुत कुछ चाहा, बहुत इच्छाएँ उठीं, लेकिन जितनी भी पूरी हुईं, वो अब भी कम लगती हैं।


2.
डरे क्यों मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर,
वो ख़ून जो आँख से पिए फ़िज़ा में बह न निकले।

अर्थ:
मेरा क़ातिल (मारने वाला) मुझसे क्यों डरेगा? क्या उसे अपने गुनाह का कोई डर है? मैं तो इतना खामोशी से मरने वाला हूँ कि मेरी आँखों से बहा खून भी हवाओं में खो जाएगा—कोई सुबूत नहीं रहेगा।


3.
मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले।

अर्थ:
इश्क़ में ज़िंदगी और मौत का कोई फर्क नहीं होता। हम तो उसी को देखकर जीते हैं जिसकी बेरुख़ी से हमारी जान निकल जाती है।


4.
ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे से उठा ज़ालिम,
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफ़िर सनम निकले।

अर्थ:
(व्यंग्यात्मक रूप से) ऐ ज़ालिम, खुदा के लिए काबा (पवित्र स्थल) का पर्दा मत हटाना। क्या पता वहां भी वही मेरे सनम (प्रेमिका) निकले जो मुझे काफ़िर कहकर छोड़ गया था।


5.
कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ‘ग़ालिब’ और कहाँ वाइज़,
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले।

अर्थ:
मैख़ाने (शराबख़ाने) का दरवाज़ा और धार्मिक वाइज़ (उपदेशक)—इन दोनों में कोई मेल नहीं। लेकिन इतना तो हमें मालूम है कि जैसे ही हम निकले, वाइज़ अंदर जा रहा था (यानि जो हमें उपदेश देता था, वो खुद भी वही कर रहा है)।



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