देखते ही देखते दिन ढल गया और रात हुई
आजतक मेरी खुद से न मुलाक़ात हुई ।
कौन हूँ मैं, क्या है मेरा वजूद ये ना जान सके
कहीं भीड़ में खो गए, खुद को न पहचान सके।।
खेल ऐसा है ये लुका छिपी का
किसी का हाथ पकड़ लिया, सोंचा कि है मेरा।।
हार के बैठ गए तो ये पाया, न कोई पराया है, न अपना।।
जिसको कोई न पा सका, जगत वो सपना है, सपना।
हिसाब लगाते तो जिंदगी बीती
दिल ललगाकर क्या पाया क्या खोया।।
आजतक मेरी खुद से न मुलाक़ात हुई ।
कौन हूँ मैं, क्या है मेरा वजूद ये ना जान सके
कहीं भीड़ में खो गए, खुद को न पहचान सके।।
खेल ऐसा है ये लुका छिपी का
किसी का हाथ पकड़ लिया, सोंचा कि है मेरा।।
हार के बैठ गए तो ये पाया, न कोई पराया है, न अपना।।
जिसको कोई न पा सका, जगत वो सपना है, सपना।
हिसाब लगाते तो जिंदगी बीती
दिल ललगाकर क्या पाया क्या खोया।।
No comments:
Post a Comment