धर्म का सामाजिक और राजनैतिक उपयोग: जाहिल क़बीलाई समाज की मुख्य निशानी
लेखक: Akshat Agrawal
प्रकाशित तिथि: 10 नवम्बर 2025
प्रस्तावना: जब धर्म सत्ता का औज़ार बनता है
धर्म का मूल उद्देश्य था — मानव चेतना का उत्थान, सत्य का बोध, और व्यक्ति के भीतर के अंधकार को प्रकाश में बदलना।
परंतु इतिहास साक्षी है कि जैसे-जैसे समाज ने सत्ता संरचना विकसित की, धर्म को धीरे-धीरे राजनैतिक और सामाजिक नियंत्रण के उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा।
जहाँ भी धर्म का प्रयोग भय, विभाजन या अधिकार-स्थापन के लिए हुआ, वहाँ मानवता पीछे छूट गई — और एक क़बीलाई मानसिकता (tribal mentality) ने समाज पर शासन किया।
क़बीलाई समाज की मानसिकता क्या होती है
क़बीलाई समाज की सबसे बड़ी पहचान है —
“हम बनाम वे” (Us vs Them)
यह विभाजन किसी न किसी प्रतीक के आधार पर होता है —
कभी जाति, कभी भाषा, कभी ईश्वर का नाम।
ऐसे समाजों में व्यक्ति की स्वतंत्रता, विवेक और नैतिक जिम्मेदारी गौण हो जाती है।
धर्म वहाँ समूह की पहचान बन जाता है, न कि व्यक्ति के भीतर की साधना।
- धर्म का अर्थ बदलकर “झंडा” हो जाता है
- श्रद्धा का स्थान “निष्ठा” ले लेती है
- प्रश्न पूछना “अवज्ञा” माना जाता है
- और सत्ता के समीप रहने वाला पुजारी या नेता “ईश्वर का प्रतिनिधि” घोषित कर दिया जाता है
इस प्रकार धर्म, ज्ञान का नहीं बल्कि सत्ता-संरक्षण का साधन बन जाता है।
सभ्य समाज की विशेषता: धर्म का निजीकरण
सभ्य समाज में धर्म कभी सामूहिक नियंत्रण का माध्यम नहीं होता —
बल्कि व्यक्तिगत साधना और नैतिक पथ का मार्गदर्शक होता है।
सभ्य समाज यह मानता है कि—
परिवार में भी प्रत्येक व्यक्ति का अपना धर्म होता है।
यानी पिता, पुत्र, माँ, बेटी सभी अपने-अपने भीतर सत्य की खोज अलग-अलग मार्गों से कर सकते हैं।
यह विविधता ही संस्कृति का सौंदर्य है।
यहाँ धर्म किसी आयोजन, पर्व या त्योहार की शर्त नहीं बनता।
सांस्कृतिक परंपराएँ — संगीत, नृत्य, उत्सव — अपने आप में स्वतंत्र होती हैं।
वे किसी काल्पनिक देवी-देवता के बंधन में नहीं बंधतीं, बल्कि मानवीय हर्ष, ऋतुचक्र और प्रकृति के साथ संबंध का उत्सव होती हैं।
धर्म बनाम संस्कृति: भ्रम और अंतर
भारत जैसे देश में धर्म और संस्कृति को अक्सर एक ही समझ लिया जाता है।
पर यह सबसे गहरी भ्रांति है।
| तत्व | धर्म | संस्कृति |
|---|---|---|
| मूल उद्देश्य | आत्म-साक्षात्कार | सामूहिक आनंद और सह-अस्तित्व |
| क्षेत्र | निजी/आध्यात्मिक | सार्वजनिक/सामाजिक |
| स्रोत | अनुभव, ध्यान, साधना | परंपरा, कला, व्यवहार |
| आधार | अंतर्मन | सामूहिक सौंदर्यबोध |
| जोखिम | जबरन थोपे जाने पर हिंसा | जबरन थोपे जाने पर नकल |
संस्कृति का धर्म से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं।
आप चाहे जिस देवी-देवता को मानें या न मानें,
होली के रंग, दीपावली की रोशनी, ईद का मिलन, क्रिसमस की सजावट —
ये सब मानवता के साझा भाव हैं।
आधुनिक राजनीति और धर्म का पुनरुत्थान
आज के दौर में हम देख रहे हैं कि धर्म फिर से
राजनीति की प्रयोगशाला में घसीटा जा रहा है।
जहाँ नागरिकता की पहचान ईश्वर के नाम से जुड़ती जा रही है,
जहाँ नीति और न्याय की जगह पूजा और प्रतीक आ गए हैं,
वहाँ फिर से वही पुरानी क़बीलाई प्रवृत्ति जाग उठी है —
जो सभ्यता को पीछे ले जाती है।
सोशल मीडिया के दौर में यह tribalism अब digital tribalism बन चुका है —
हर समुदाय अपने "देवता", अपने "सत्य" और अपने "घृणा-वीर" का निर्माण कर चुका है।
सच्चा धर्म क्या कहता है
सच्चा धर्म हमेशा व्यक्ति के भीतर की आवाज़ से जन्म लेता है।
वह किसी झंडे, किसी पार्टी, या किसी मठ से नहीं आता।
वह कहता है:
“पहले स्वयं को जानो, तभी संसार को सुधारने का अधिकार है।”
सच्चा धर्म आत्म-नियंत्रण, करुणा, और विवेक की बात करता है —
न कि दूसरों पर नियंत्रण की।
निष्कर्ष: सभ्यता की ओर वापसी
सभ्यता का माप यह नहीं कि हमने कितने मंदिर या मस्जिदें बनाई हैं,
बल्कि यह कि हमने कितने स्वतंत्र और सोचने वाले मनुष्य पैदा किए हैं।
क़बीलाई समाज धर्म का उपयोग सत्ता और डर के लिए करता है।
सभ्य समाज धर्म को आत्म-सुधार और करुणा के लिए।
हमारा चुनाव आज भी यही है —
क्या हम सभ्यता की ओर चलना चाहते हैं,
या अंधभक्ति और Tribal मानसिकता की ओर लौटना?
लेखक का व्यक्तिगत नोट
“मेरा धर्म मेरा अंतरात्मा है।
समाज का धर्म न्याय और करुणा है।
राजनीति का धर्म जनसेवा है।
इन तीनों का जब एक-दूसरे में हस्तक्षेप होता है,
तब अधर्म जन्म लेता है।”
— Akshat Agrawal
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